♦ सुजीत कुमार झा
हाजिरी रजिष्टरमे आदर्श नामपर हमर आँखि रुकि जाइत अछि । आदर्श ….. आदर्श ….. आदर्श । पूरा रजिष्टरमे एकटा इएह नाम हमरा देखाइ देबए लगैत अछि । बहुत मुस्किलसँ स्वयंकेँ शान्त करैत बजैत छी, ‘आदर्श ।’
‘जी मैम ।’
एकटा मधुर आबाज सूनि रजिस्टरसँ आँखि उठबैत छी । आगाँके बेञ्चपर बैसल एकटा सुन्दर बालकपर आँखि टिक जाइत अछि ।
उएह तऽ अछि । अवश्य हुनके जकाँ नाक, ठोर, मुँहक कटिन, ओहिना आकर्षण । एक नजरि देखऽ बला सेहो बता सकैत अछि । ….. ओह, हमरा ककरोसँ की मतलब अछि ? नहि …नहि, मतलब तऽ अछि । सभ किछु छोडि़कऽ एहि तरहँे नहि अबितहुँ तऽ ई आदर्श हमरे होइत । छी.., की सोचऽ लगलहुँ हम ? सङ्कोचसँ हमर आँखि स्वयं भूmकि गेल ।
मुदा आब सोचलासँ की ? हमरा मानस पटलपर बिहारि उठल छल । जाहि स्मरणके पाछू छोड़ैत एतेक दूर आएल छलहुँ, आइ ओ पुरान बात हमरा एहि तरहे घेर लेत, ई हम सोचबो नहि कएने छलहुँ ।
ई की अछि ? किए कएने छलहुँ हम ? की भेटल एना कएलासँ हमरा ? एहि प्रश्नक घेरा हमरा चारु दिससँ बान्हि रहल छल । की सम्पूर्ण दोष अरुणेके छलैन्हि ? हम स्वयं तखन अपन जिद्दक आगाँ ककरो बात नहि सुनने छलहुँ । पूरा दोष अरुणके उपर लादऽ बाली हम, आइ स्वयंकेँ नजरिमे दोषी भऽ गेल छी । मुदा एहि बातकेँ आब पन्द्रह वर्षक बाद सोचिकऽ की हएत ?
शिक्षकक कक्षमे आबिकऽ बैसि जाइत छी माथ दुखाइत अछि एकर बहाना बनाकऽ दोसर शिक्षककेँ कक्षामे पठा दैत छी ।
स्मरणक समुद्रमे डुबैत उतरैत अरुणसँ भेल बियाह स्मरण रिप्ले भऽ जाइत अछि । द्विरागमने दिन जखन हम सासुर अएलुहँ तऽ हमर साउस हमर नैहरिक लोक उपर खूब चुटकी लेलैन्हि तऽ हम आश्चर्यमे पडि़ गेल छलहुँ । फेर बात–बातमे उलहन देब हुनकर स्वभाव हमरा आगाँ प्रत्यक्ष होबऽ लागल । हम किछु दिन तऽ चुप रहलहुँ, ताहिकेँ बाद हमरो मुँह खूजि गेल ।
‘ई हमर माए बाबुकेँ किछु नहि कहि सकैत छथि,’ तमसाइते हम एक दिन डाँटि देलहुँ ।
‘अहाँकेँ, माँ संगे एहन व्यवहार नहि करबाक चाही,’ अरुण रुममे आबिकऽ हमरा कन्हपर हाथ राखि पे्रमसँ सम्झओलैन्हि ।
मुदा हम तऽ हुनकेपर बरसि गेल छलहुँ, ‘किए नहि कहबाक चाही, अहाँ हुनका किए नहि रोकैत छियैन्हि, की नव पुतहु संग एहने व्यवहार कएल जाइत छैक ?’
‘सभ धीरे–धीरे ठीक भऽजएतैक, मोती । अहाँ एहिपर ओतेक ध्यान नहि दिऔक,’ अरुण ओहिना शान्त छलाह ।
हम ओछायनपर सूति रहल छलहुँ । एहिकेँ बाद अरुण हमरासँ किछु कहऽ चाहैत छलाह, मुदा हम अवसर नहि दैत छलहुँ । कतेको राति ओहिना बित गेल भोरसँ साँझधरि नहि जानि कतेको बात हम अरुणसँ सुनने छलहुँ आ फेर एहिके बदला रातिमे अरुणसँ गनि–गनिकऽ लैत छलहुँ । ओ बेचारा मुक दर्शक जकाँ सभ सहैत छलाह । केकर पक्ष लितथि ओ ? दू दिन पहिने आएल अपन नव सहचरीके वा पालि–पोसिकऽ एहि लायक बनबऽ बाली माँके ? हमर नैहरि भैरहवामे छल आ सासुर ग्रामीण क्षेत्रमे । गल्ती तखन शायद ककरो नहि छल । शहरी सभ्यताक रङ्गमे पलायल हम ओहि संस्कारी बातके कोना बुझितहुँ जाहिके विषयमे हम कहिओ सुननहे नहि छलहुँ । मुदा दुनू पक्षमेसँ केओ झुकबाक नामे नहि लैत छलहुँ । सभ गोटे चप्पल रुमसँ बाहरे रखैत छल मुदा हम भानस कक्षमे, शयनकक्षमे सेहो चप्पल लऽ जाइत छलहुँ । साउस शायद एहि सभ अवसरके प्रतिक्षेमे रहैत छलीह । कहियो कहैत छलीह, ‘कतेक अंगे्रज मरल छल तऽ ई देवी जन्म लेने छथि ।’ कहिओ कहैत छलिह, ‘अपन बापक घरमे नहि सिखलहुँ तऽ कोनो बात नहि मुदा एतऽ ई सभ किछु नहि चलत ।’
हमहु अण्ट–सण्ट जवाव दैत रुममे आबि कानऽ लगैत छलहुँ । बात–बातमे साउस कहैत छलिह, ‘ई दिल्ली मुम्बई नहि छैक ई मिथिलाञ्चल अछि । हम आश्चर्यसँ हुनका देखैत रहि जाइत छलहुँ ।
आखिर, ओ मनहुस दिन आबिए गेल यदि ओहिदिन अरुण हमरा रोकि लेने रहितथि तऽ आइ हमर सर्वनाश नहि भेल रहैत ।
हम नहाकऽ निकललहुँ तऽ साउस चिचएलिह, ‘बाल्टिन माजि देबैक कनियाँ ।’
‘किए ?’
हमरा नजरिमे प्रश्न देखिकऽ ओ बजलीह, ‘घरबलासँ पहिने नहायल छी तऽ बाल्टीन माँजि दिऔ नहि तऽ घरबलाकेँ उमेर घटैत छैक ।’
‘की मतलब ?’
मोनमे तऽ आएल कही बाल्टिन माजि–माजिकऽ उमेर बढ़ा लैत छी तऽ अहाँ विधवा किएक भेलहुँ ? मुदा चुप रहब ठीक बुझलहुँ ।
किछु देरक बाद अरुण भोजन करऽ लेल बैसलाह तऽ फेर ओहे बात । हम अपन मुँहपर नियन्त्रण नहि राखि पएलहुँ आ कहलहुँ, ‘घरबला हमर छथि, हुनकर उमेरक चिन्ता हमरा अछि । अतबे अछि तऽ अहाँ अपन घरबलाकँे उमेर किए नहि बढ़ा लेलहुँ ?’
ई बात हमरा मुँहसँ निकलिते घरमे महाभारत मचि गेल ।
‘एहि घरमे हम जे चाहब सएह हएत । अहाँक ई हिम्मत ?’ साउस गरैज रहल छलीह ।
आब हमरो सहन शक्ति जबाब दऽ रहल छल । अपमानक हद भऽ गेल छल । ओहि समयमे हम ब्रिफकेशमे कपड़ा राखऽ लगलहुँ ।
सैकड़ो मुद्दाकेँ लडि़ कऽ अदालतमे जीतऽ बला अरुण अपने घरक मुद्दा नहि लडि़ पावि रहल छलाह । हम कहलहुँ, ‘अहाँकेँ तऽ कोनो कठपुतली विवाह कऽ कऽ अनबाक चाही जकर डोरी अहाँक माएक हाथमे होइत ।’
हम जाए लगलहुँ तऽ अरुण हमरा रोकबाक बहुत प्रयास कएलैन्हि ।
‘अहाँ यदि हमरा राखऽ चाहैत छी तऽ हम एहि घरमे नहि रहि सकैत छी,’ हम साफ–साफ कहि देलहुँ ।
‘हम ओकरा नहि छोडि़ सकैत छी आ अहाँकेँ जएबाक लेल सेहो नहि कहि सकैत छी । अहाँ स्वयं निर्णय करु अहाँकेँ की करबाक अछि ।’
पाछू घूमिकऽ देखब हम नहि सिखने छलहुँ ई कहि हम घरसँ निकलि गेलहुँ ।
अबेर राति घर पहुँचलहुँ पापा देखिकऽ आश्चर्यमे पडि़ गेलाह । हमरा पहुँचलाक किछुए देरक बाद दिअर पहँुचल रहथि । पापा हमरा बहुत सम्झओलैथि मुदा नहि जानि कि जिद्द हमरा भीतर आबि गेल छल । हम दिअरसँ कहने छलहुँ, ‘ओ घर नहि नरक अछि । अहाँ देखब एक दिन अहूँके कनियाँ सेहो घर छोडि़कऽ भागि जाएत ।’
अपमानक बिष पीवि दिअर घूरि गेल रहथि ।
पापा बादोमे सम्झओलथि मुदा हम जे रेखा बनओने छलहुँ ताहिसँ नहि बढ़लहुँ ।
मुदा आइ …… स्मरणक महासागरमे फेर बिहारि अएल अछि । सोचैत छी कोना एतेक बढियाँ, सिधा–साधा पे्रम करऽ बला घरबलाकेँ छोडि़ देलहुँ हम ।
विवाहक बाद बिताएल एक–एक क्षण नहि बिसरि रहल छी । टिभीमे सिनेमा देखैत अरुण कहने रहैत, ‘अपना लड़का हएत तऽ ओकर नाम ‘आदर्श’ राखब ।
आ आइ कोनो दोसरकेँ आदर्श देखि हमरा इष्र्या भऽ रहल अछि । बेर–बेर एहि आदर्शमे अरुणकँे तकबाक कोशिशकऽ रहल छी ? पुरान होइत घरकेँ ध्वस्तकऽ देनाइए उचित अछि । ओहिपर कोनो मञ्जिला नहि बनाओल जा सकैत अछि ।
अचानक आगाँ आएल ओहे चेहरा देखि हम अपनाकेँ सम्हारैत छी, ‘की बात अछि आदर्श । ’
‘मैम अपनेक किताब । अपने क्लासेमे छोडि़ आएल छलहुँ ।’
‘आदर्श, अहाँक बाबूजीक नाम अरुण अछि ?’
‘जी मैम, जिल्ला अदालत कञ्चनपुरमे न्यायधिश छथि ।’
ओकर आँखिमे जिज्ञासा झलैक रहल छल ।
हमरा आगाँ एक बेर फेर मान–अभिमानक सैकड़ो आदर्श थकुचा रहल छल । शायद हुनकर चटकनसँ पहिने हम हुनका सहजिकऽ रखने रहितहूँ तऽ की आइ हमर आगाँमे ककरो तस्वीर नहि झलकैत ? हम स्वंयसँ बेर–बेर प्रश्न कऽ कऽ सेहो जबाब देबऽमे असर्मथ भऽ रहल छी ।