♦ रोशन जनकपुरी
“एकटा कथानक चाही मित्र ! रियलिस्टिक ।”
“कथा किया नइँ ? हमरे स किया ? आ रियलिस्टिके किया ?”
“माने किछु अलग हइट क’ होइ । कथानकमे किछु अपना हिसाबे हेरफेरके गुन्जाइस रहैछै । कथामे ई सुविधा नइँ होइछै । आ सब स बेसी अहाँ सन रियलिस्टिक लेखकसब सस्तमे पइट जाइछै ।”
“मुदा कहब त हम अपने बात !”
“हेतै ।”
“तहन ठीक छै । एकटा प्लौट मनमे तैयार अइ, सुनाउ ?”
“हेतै ।”
“ठीक छै । मुदा धैर्य राखब, बीचमे टोकटाक नइँ करब …….”
……………….. ……..
अन्हार राइत, डइनियाँके बेटा कदम तर मरल परल छै ।
नीक लोक ‘बढ़म’ तर चिबा रहल छै डइनिया बेटाके ।
……….
भयावह चियारल आँइख, गुँह मूत आ करिखामे लेभरायल, टपटप, टपकैत लाल–लाल लेहु स ललाइत धरती, आ ललायल डइनियाँके मइलझोल फाटल नूआँ, आ ओकरा चारुकात मनसायल हाँकल भीड़के ठहक्कैत बर्बर मुहठानसब, आ खिड़की स मुहियारी दैत नीक लोकक तस्वीर छपल अइछ अखबारमे । नीक लोकसब पढ़ैत अइछ अखबार । मुहँ बिचक’बैत अइछ —“एक्कइसम् शताब्दीमे सेहो एना ?”
. ………………
नीक लोक कपड़ा पहिरैत अइछ । जाइत अइछ ‘बढ़म’ तर । मौर चढ़बैत अइछ । श्रद्धा स नत् होइत अइछ —“रच्छा करु हे बढ़म ! दुष्टात्मा, भूत–प्रेत, पिशाच–पिशाचिनी, डाइन–जोगिन स रच्छा करु हे जगदम्बा ! हे काली ! संहार करु ओहि सब दुष्ट प्रवृत्तिके !”
धूप गुग्गुल स धुआँइत आहुतके धुआँ हाथमे भरैत बालबच्चाके माथ हँसोतैथ अइछ नीक लोक ।
बढ़म थानक गहबर स बहराइत धामी छूबैत अइछ नीक लोकक माथ । सिन्दुरक लाल टीका वा छाउरक कारी टीका लगबैत अइछ सबहक भालपर । पढ़ैत अइछ शुभमस्तु मन्त्र । कामनामे गोहाइर करैत अइछ —“डाकिनी–पिशाचिनीके नाश हो !” जयजयकार स गुंजायमान भ‘जाइत अइछ बढ़मथानक उत्सव ।
……………………
घैलमे असंख्य भूँड़ छै । भूँड़सबमे स असंख्य इजोतक कमजोर टिमटिम बहरा रहल अइछ । घैलक उप्परके ढकनामे के धधराक इजोत उप्परे हवामे हेरा रहल अइछ । पिलपिल इजोतमे घेरा बनौने, डइनियाँसन मुँहकान बालीसब, चिन्हाइत नइँ अइछ, बस भीड़सन देखाइत अइछ, नाँइच रहल अइछ । गाइब रहल अइछ —“हे अन्हार राइत झिझिया ।
नीकलोक नाक सुकरैत अइछ —“अइछ त ई हमरे सँस्कृति, मुदा पुरान अइछ । मजा नइँ आइब रहल अइछ ।”
बढ़मथानक धर्मध्वज पर टाँगल माइक स गूँजैत अइछ फ्यूजन संगीत —‘चल चल गे डइनियाँ कदम तर, तोरा बेटाके खयबौ बढ़म तर ।’
…………………..
नीक लोक माइत गेल अइछ । की बोर्ड आ ड्रमसेटक बेसक धकधक छातीके कोँढ़–कोँढ़ छिटका रहल अइछ । मत्त नीक लोकसब, बिजलीजका नाँइच रहल अइछ । बढ़मथानक छत पर स छिडि़याइत फ्लड लाइटक इजोतक बाइढ़मे बहि रहल अइ नीकलोकक मन, उद्दाम । चारु दिस जयजयकार हुङकार अइछ —‘चल चल गे डइनियाँ कदम तर, तोरा बेटाके खयबौ बढ़म तर ।’
……………………….
राइत मुदा अन्हरिए अइछ । डइनियाँके गाममे त आओर घन अन्हार । शताब्दियो पुरान, जर्जर झिझियाक मरल इजोत, माथपर लदने नाँइच रहल डइनिएसन लोकसबहक जीवनक अन्हार स नइँ जीत सकल अइछ । कतबो ओ गाबओ —‘तोहरे भरोसे बढ़म बाबा झिझिया बनौलियो हो ।’
सबबेर डइनिएँके बेटा मरैत अइछ । सबबेर डइनिएके मुँह नाक स भभकैत अइछ लेहू । अहूबेर इहे भेल अइछ ।
सबबेर जका अहूबेर नीक लोके नइँ, ओकर अपनो लोकसब भगाब’ चाहैत अइछ ओकरा गाम स —‘ई गाम स भाइग किए नइँ जाइछै !’ ओकर अपन लोक, जेकरा डर छै जे डइनियाँके बहन्ने ओकरो बेटा नइँ मइर जाय । नीक लोकके कहीँ ओकरोसबमे डइनियाँ नइँ देखा जाय ।….”
“मुदा डइनियाँके बेटा किया मरल ? चाहे डइनियाँ, डइनियाँ किए भेल ?“
”आखिर धैर्य टुटिए गेल ! एकर जबाब अनेक भ’ सकैत अइछ । डइनियाँ महिला अइछ, चाहे डइनियाँ छोट जाइत …..”
”छोट जाइत ?”
“एह ! एना बजैछी, जेना अहाँ इङ्गलैन्ड स आयल होइ । हँ छोट जाइत ! नीक लोकसब मेहनत करैबला सबके छोट जाइत कहैछै ।”
“मेहनत त हमहूँ करैछी ।”
“मुदा अहाँ गूँह त नइँ उठबै छी ने महोदय ! अहाँ म’र त नइँ ने उठबै छी महोदय ! अहाँ बिच्छन त नइँ ने उखारै छी, अहाँ जुत्ता त नइँ ने सीबै छी, अहाँके किछु रुपैया वा किछु सेर अन्नक खातिर आनक राइत रङ्गीन करबाबलेल विवश त नइँ ने कयल जाइय ….. !”
“भेल ! भेल ! आगू बढ़ू !”
“… त डइनियाँ गरीबो भ’ सकैय । डइनियाँ विदेशियाके असगरुआ ब’हु सेहो भ’ सकैय , वा डइनिया नीक लोककलेल अटेरी सेहो भ’सकैय ।”
“तब ?”
“तब की ! अन्हार राइत, डइनियाँके बेटा मरल परल छै । नीक लोक बढ़म तर डइनियाँके बेटाके चिबा रहल छै ।”
“ओह ! बन्द करु ई पुरना राग । हमर माथ फाइट जायत ।”
“बस ! एतबेमे टेँ बाइज गेलहुँ ? जे युग युग स ई भोइग रहल अइ, ओकर की हाल होइत हेतै ? …..कथानक नइँ चाही ? रियलिस्टिक ?”
“ओह ! ओ त चाहबे करी । मुदा कनेक दम्म त धर’ दिय ! ओह कते भयानक ! ….आब कहू !”
“त, अन्हार राइत …”
“फेर ओहे ?”
“हँ, कतौ स बात त आगू बढ़ाबही परतै ने !”
“हँ, होउ !”
“ठीक छै । मुदा टोकु नइँ बीचमे । ध्यान भटैक जाइछै । ….., डइनियाँके बेटा मरल परल छै । गूँह, मूँत आ करिखा स लेभरायल आ माथ स पैर तक युगीन यातनाके समाधि बनल अइ ओ । ओ मनमे अइ दुनियाँके सराध सहेजने अइ आ ओकर आँइखमे एकटा आक्रोशित प्रश्न प्रक्षेपित अइछ । एकटा युगके प्रश्न ! — नीक लोक किया चिबा गेल ओकर बेटाके ? कहिया अन्त होयत ई नीक लोकक दुनियाँ ? कहिया बनत ई दुनियाँ नीक सबहकलेल ?”
समयके भालपर एकटा तख्ती टाँगल अइ — एकइसम् शताब्दि ! आ ओइ तख्तीमे लटैक रहल अइ डइनियाँ आ ओकर बेटा , पेन्डुलम जका झूलैत ।
………………………………
अखबारक मुँहपर एकदिस डइनियाँक लेहू स लथपथ दृश्य अइछ, त दोसर दिस उत्सवमे मातल जयजयकार करैत नीक लोकक दृश्य छपल अइछ । शिर्षक अइछ —‘तोहरे भरोसे बढ़म बाबा । ……’
……………………….
”ओह ! ओह ! बन्द करु ! ई कथानक !”
“हँ, अइ स बेसी कहले की जा सकैय ? अइ स आगू त किछु करबाक जरुरी होइछै ।”
“की करबाक जरुरी छै ?”
“अइ सड़ल, मातल नीक लोकक दुनियाँक ध्वंस आ सबहकलेल नीक दुनियाँक निर्माण ।”
“ओह ! कते भयानक ! एहन कथानक बजारमे चलतै ?”
“ई त अहाँ जानी । हमरा त कथानक सुनयबाक छल, से सुना देलहुँ ।”
“एना किया बजैछी ? आब अहुँ हमरा अपरिचितसन बुझा रहल छी । एतेक पीड़ा, एतेक आक्रोश अहाँ कथानकमे कोना भरलहुँ ? आश्चर्य अइछ !”
“ठीक कहलहुँ ! हमहुँ ओही युगीन यातनाके एकटा हिस्सा छी । हमहुँ एकटा डइनियाँके बेटा छी, जेकर माय अपन बेटाके बचाब’मे अपन जान द’ देलक ।”
“ओह !”