♦ विभूति आनन्द
|| 1 ||
समुद्रकें देखब
अपनाकें देखब सन होइत छै
ठाढ़ छी ‘मंदारमणि’ समुद्र तटपर
आ सोचिते जा रहल छी लगातार सएह…
अपन कॉटेजक
बंद केबाड़क अन्दर
बैसल समुद्रकें देखब
कतेक फुसियाही होइत छै !
– तटपर ठाढ़-ठाढ़ सेहो सोचा रहल अछि
समुद्र तटक
ई बेचैन तरंग मुदा हमरा
परिपुष्ट कएने जा रहल अछि
आ हम स्वयंमे हेरायल जा रहल छी
हम समुद्र सँ
प्रेम करैत रहल छी
अपन स्मृतिक प्रेमिकाक जकाँ–
बरु मानि ली तँ ओकर समानान्तर…
मुदा समुद्र
ककर प्रेमपर एतेक
उन्मादित लागि रहल अछि–
सोचैत जा रहल छी संग-संग ओहो…
|| 2 ||
समुद्रकें कखनो
थाकलमे नहि देखलिऐ
दिन दुपहर होइक, आकि
राति अन्हरिया, एकरा
अपन लयमे गबैत सुनलिऐ
सेहो अपन सिरजल सरगमक बलें !
भरिसक
समुद्रक हृदय
एही लेल विशाल छै,
कारण ओ कखनो अपन
विशालता नहि व्यक्त करैए
निरभिमान जीबाक कला प्रायः
स्वयं सँ सिखने अछि समुद्र-जगत
हम समुद्र तटपर
थोड़-बहुत अन्दर धरि
जयबाक त्वरित निर्णय लैत छी
फेर तँ अचरज होइत देखैत छी–
ओ हमर पएर पखार’ अबैत अछि,
आ फेर घुरि जाइत अछि
फेन सन हँसी हँसैत स्वतः…चुपचाप…
निश्चिते एहन संस्कार,
ई कोनो पाठशालामे
जा क’ नहि सिखने-पढ़ने होयत !
|| 3 ||
हम जंगल,
आ पहाड़ दुनूकें
संग-संग जीबैत रहलहुँ अछि
फेर तँ
अकुलाइत मोन,
सालमे कम-सँ-कम एको बेर
कतहु-ने-कतहु केर संधान करैत
भेंट-घाँट क’ लेल करैत अछि
जेना थाकल मोन-प्राणकें
स्फूर्ति सँ भरि लेल करैत अछि…
मुदा
पहिल बेर
एना लागि रहल अछि,
जेना किछु नब पाबि लेलहुँ अछि
एहि समुद्र तटक आँगन आबि
स्वयंक जानि लेलहुँ ओकाति !
बाजह समुद्र,
तोहर ई गर्जना की छह ?
कतहु हमर टुटनक विरुद्ध
तोहर वर्जना तँ नहि अछि हौ ?
तोहर शब्द हमरा,
हमर ग्रहणशक्ति सँ बाहर अछि
प्रायः तें तँ नहि
तों धीर-प्रशान्त, तैयो अशान्त छह !
|| 4 ||
कहियो गेल छलहुँ
कन्याकुमारीक तट सेहो
जत’ हमरा कहल गेल छल,
जे एही ठाम छैक धरतीक अन्त
मंदारमणि तटपर ठाढ़
ताहि दिनकें स्मरण करैत
सोच’ लगैत छी, जे
की सहीमे इएह सत्य छिऐ !
मुदा उत्तर
नहि भेटैत अछि
फेर तँ बढ़़ि चलैत छी
समुद्रक गहराइ मापय
मुदा तखनहि
ओकर बड़प्पन देखू–
अपन तरंग-रंग आबि
यथास्थान आनि
पटकि जाइत अछि हमरा !
फेर हम सोचलहुँ,
किछु सिखबाक होअय,
तँ समुद्र-तट आबि सिखबाक चाही
|| 5 ||
हम समुद्रमे
किछु आगू बढ़लहुँ
किछु मस्ती सेहो कयलहुँ
समुद्र-जलक स्वाद सेहो लेलहुँ
सहीमे, काफी नोनगर लागल जल
भूगोलक शिक्षक
सही शिक्षा देने रहथि कहियो
तथापि
हम सोचलहुँ, सोचैत रहलहुँ
जे जखन सकल नदीक मीठ जल
समुद्रमे आबि मिलि जाइत अछि,
फेर नदी अपन स्वाद कत’ गमा बैसैत अछि !
फेर लागल
वास्तवमे एत’
धरतीक अन्त अछि,
आ फेर वास्तवमे
छोट माछकें पैघ माछ द्वारा
घोंटि जयबाक आरंभ
एतहि सँ संभव भेल होयतै, भरिसक–
लगैत अछि…
|| 6 ||
हमरा एकर
आवाज सुनबामे
बहुत रुचि रहैत अछि
तें हमरा समुद्र-तट आयब पसिन्न अछि
हमरा मुदा
समुद्र-स्नान कर’मे
मिसियो भरि रुचि नहि अछि
समुद्र-तटपर निर्वस्त्र भ’ क’
‘सन बाथ’ लेब सेहो नहि रुचैए
तें तँ एखन धरि हम गोवा नहि गेलहुँ !
कन्याकुमारी गेल छी,
मुदा एहि लेल जे हमरा
ओत’ समुद्र द्वारा सूर्यकें घोंटब,
फेर उगिलि देब नीक लगैत अछि
मुदा ई सब तँ
असलमे मोनक खेल अछि,
हमरा तँ समुद्रक गर्जनामे
एक अनाम आंदोलनक
ललकार सन किछु सुना दैत अछि
आ मूल कारण सएह
जे हमर इच्छा समुद्र-तट
जयबाक लेल बेचैन रहैत अछि
|| 7 ||
समुद्र !
तोरा देबाक लेल
हमरा लग किछुओ नहि अछि
हम तँ भिखारी छी
तोरा सँ लेब’ आयल छी
तोहर विशालता
तोहर गहराइ, मुदा
तैयो ई धीर-प्रशांत मन-मीत !
|| 8 ||
समुद्र
हमरा निकट
आब’ चाहैत अछि
समुद्र
हमरा निकट
नदी जीब’ चाहैत अछि
नदी
दौगैत अछि
समुद्रक दिशामे
कोन,
अरे कोन एहन आस
आ विश्वास लेने ओ
जी रहल अछि अपन स्वप्न-संसार
समुद्र,
दुलराब’ चाहैत अछि
आ नदी ओहि दुलारमे
समा जायब जनैत अछि, नीक जकाँ…
|| 9 ||
छोट सन
हमर दिमागमे
अनेक समुद्र अछि
पहाड़ सेहो बहुत अछि
छोट सन
हमर दिमागमे
एक छोट सन पृथ्वी सेहो अछि
कत’ राखू
कोना सम्हारू
फेर कोना क’ होउ निश्चिन्त
हम पृथ्वी जीब’ चाहैत छी
हम पहाड़ जीब’ चाहैत छी
हम समुद्रो जीब’ चाहैत छी
हमर अंदरक
पर्यावरण सुखा रहल अछि
पृथ्वी छोट भ’ रहल अछि, आ
समुद्र आर समुद्र भ’ रहल अछि…
|| 10 ||
समुद्र तटपर बैसल
हम स्वप्निल भ’ रहल छी
आ अनेरे समट’ लगैत छी बालु
हमर जिह्वामे
स्वादे-स्वाद अछि
हम बालू सँ सिरजैत छी
निषादपुत्री मत्स्यकन्याकें
हम सोचैत छी
कदाचित समुद्र सँ
निकलि आबय जीवित
ओ हमर मोनक मत्स्यकन्या
हम ओकरा देख’ चाहैत छी
हम ओकरा जीब’ चाहैत छी
हम ओकर स्पर्श कर’ चाहैत छी
हम समुद्र तटपर
बैसल जीबैत छी एकान्त
हम मोनहि-मोन
समुद्रक बालु सँ
बनबैत छी मत्स्यकन्याक आकृति–
ओकर आँखि, ओकर ठोर
फेर ओकर उरोज, नाभि
फेर कटि-प्रदेश…
फेर ओकरा मत्स्याकारमे आनि
अपन आँखिमे संतुष्टि लैत
खुश भ’ जाइत छी, भरि पोख
फेर हम
चेहा उठैत छी–
अरे, बिनु जननांगक
कोना जन्म द’ देलकै महर्षि व्यासकें ई !
हम ओकरा
आब कोनो कलामे नहि,
हम देख’ चाहैत सोझा-सोझी
हम कलाकारक अनुकृतिकें
परख’ चाहैत छी सरेआम, सहरजमीनपर
सत्यमे
मनुष्यक दिमाग,
अनेक-अनेक इच्छा जीबैत रहैत अछि
|| 11 ||
सोचैत छी–
नोन तँ सभकें चाहिऐ
आ समुद्र तँ तकर भंडारे अछि
आ से
नदी संग आयल
किसिम-किसिमक माछ
समुद्रक मत्स्य-वंशमे शामिल भ’ गेल हैतै
सुनल अछि
समुद्रक माछ
बहुत स्वादिष्ट होइत छै
मुदा ओहिमे
स्वाद अनबा लेल
नोनक आवश्यकता तँ पड़िते छै
अचरजमे बैसल
सोचैत छी– ई नोनक
केहन भण्डार अछि समुद्र !
की एकरा माछक स्वादक नहि छै पता !
फेर उत्साहित होइत,
सोचैत छी– एहि समुद्रकें
मीठक ज्ञान करायल जयबाक चाही
मुदा से कोना ? – सोचैत छी
भरिसक सएह कारण अछि, जे
हम समुद्र-संगति लेल जाइत रहैत छी, आ
आ ओतहि बैसैत, घुमैत तकैत रहैत छी–
मिठगर सन कोनो स्वप्निल दृश्य
मिठगरे सनक कोनो प्रेम-भींगल सुगंध…
जेना–
मत्स्यकन्या
ओकर आँखि
ओकर उरोज
ओकर सौष्ठव…
अर्थात् नहि जानि किएक,
हमरा अत्यधिक पसंद अछि
ओकर चित्रकार, जे
समुद्र तट बैसल
करैत रहैत अछि कल्पना
अपन मोनक मत्स्यकन्याकें…
एहने सन बेचैन समयमे,
हम सेहो कहियो-काल ऊबि क’
एत’ अबैत छी, आ चैन तकबा लेल
एहने अवैज्ञानिक दृश्य सभ पढ़ैत छी
हँ, एहने बेचैन समयमे
ऊबि क’ कहियो-कखनो
हमहूँ मत्स्यकन्याकें तकैत
समुद्र तटपर घुमैत रहैत छी पियासल…
एखन हम
बंगाल-खाढ़ीक
उत्तरी भागमे घुमैत-बौआइत
दूर कतहु, बहूऽऽऽत…देखैत छी–
कोनो युवा निषाद पुत्रकें प्रायः
एक नवल निषाद पुत्रीक संग
स्वयंक जीवन कें
मिठगर बनब’ लेल मे निमग्न अछि, आ
नाह भासल चल जाइत अछि ओकरे व्यथे
प्रायः ई हमर
भ्रमे तँ अछि, जे
कतोक मन्वन्तर सँ
एही भाव-रंगकें स्पर्श करबामे
लागल छी चोरा क’ नुका क’, संयमित…
|| 12 ||
मंदारमणिक संग
दीघा सेहो बहुचर्चित
चर्चित तँ मुम्बैक
मड आइलैंड सेहो अछि
थोड़बे हटि दमनकें सेहो ध’ लैत छी
मुदा महासागर तँ
आँगुर पर गनल अछि
जेना अटलान्टिक, प्रशान्त
हिन्द, आर्कटिक, आदि-आदि…
मुदा एखन एत’
किएक स्मरण आबि रहलय
ई सागर-समुद्र सभक वंशावली !
हम एखन जत’ छी, बस
ओकरे स्मरण राख’ चाहैत छी
अनेरोक कत’-सँ-कत’ भसिया जाइत छी !
स्मृति संग जीयब
भरिसक प्रकृति द्वारा
मनुष्यक रक्तमे घोरि तँ ने देल गेल छै !