धीरेन्द्र प्रेमर्षि नेपालक चर्चित लेखक छथि । मैथिली साहित्यक हेर विधामे कलम चलावएवला प्रेमर्षि साहित्यमे लागए लेल युवासभकेँ प्रेरित करैत रहैत छथि । मैथिलीक चर्चित गीतकार कालिकान्त झा तृषित आ हुनक पुस्तकपर अलग शैलीक लेख पढ़ी –
♦धीरेन्द्र प्रेमर्षि
मैथिली साहित्यक सागरमे कछेरेपर बैसलजकाँ बुझाइत अछि एकटा कवि। मुदा एहि कविक रचना भावककेँ भाव सागरक अतल गहिराइधरि बड़ सहजतासँ विचरण करा दैत छैक। इएह कारण अछि जे व्यक्तिगत रूपेँ विकेन्द्रित रहितो एहि कविक रचना सदति मैथिली साहित्यक केन्द्रमे रहैत आएल अछि। खास कऽ नेपालक मैथिली साहित्यमे। जी, हम बात कऽ रहल छी मैथिली गीतिकविताक एकान्त साधक एवं सशक्त हस्ताक्षर कालीकान्त झा ‘तृषित’ क। पहिल कृति “तृषितक फुलबारी : अभिनव गीत-नचारी”क माध्यमेँ मैथिली संसार हिनक रचनाशीलतासँ नीकजकाँ परिचित भऽ चुकल अछि। ओहने रचनाशीलताक अगिला कड़ीक रूपमे आएल छनि तृषितजीक काव्यकृति— “तृषित पुष्पाञ्जलि”। एहूमे मूलतः भक्तिएभावक गीतिकवितासभ सङ्गृहीत अछि।
तृषितजी अपन कृतिसभक माध्यमेँ भलहि मूल रूपेँ भक्तिभावक कविक छवि बनओने होथि, मुदा हिनक काव्यचेत आ रचना-संसार बहुआयामिक छनि। बल्कि ई कही जे जीवन-जगतक अन्यान्य पक्षसँ सम्बद्ध हिनक रचनासभ आओर अधिक मुखरताक सङ्ग अपन बात कहैत अछि। प्रखर व्यङ्ग्यचेतक समधानल प्रहार आ कलात्मक प्रस्तुति हिनक लेखनीक वैशिष्ट्य रहलनि अछि। किछु समय पहिने सामाजिक सञ्जालमे नियमितजकाँ अबैत हिनक “मुसरी बाबूक दोलत्ती” शृङ्खला, पूर्वप्रकाशित हिनक काव्यकृति “रीत केहन विपरीत” तथा अन्य छिटफुट रचनासभ एहि बातक सुन्दर नमूना प्रस्तुत करैत अछि।
गमैया परिवेश, सरल शब्द एवं स्थानअनुसार सौन्दर्य तथा समुचित सघनता प्रदान करबाक दृष्टिएँ संस्कृतनिष्ठ शब्दसभक सेहो व्यवस्थित प्रयोगसँ हिनक रचनासभ गति, यति आ लयक दृष्टिएँ सेहो सोँटल तथा शोधल पाओल जाइत अछि। भाव एवं शब्दसभक संयोजन एहन सुन्दर रहैत अछि जेना कोनो खाँचमे खपाखप बैसाओल गेल हो। पाँतिपाँतिसँ प्रायः अलग-अलग बिम्बसभ बहराइत। ई बिम्बसभ तृषितजीक समग्र रचनाकेँ कोनो सुन्दरसन कियारीजकाँ सजा देल करैत छैक। भाव-प्रवाह आ लयात्मकता एहन जे कहुनाकऽ गुनगुना ली, गीत बनि जाइत अछि।
विगतमे एकटा सङ्गीतकारक रूपमे हम हिनक कएकटा रचनाकेँ सङ्गीतबद्ध कएने छी आ सभमे एकटा अलग तरहक आनन्द आएल अछि। प्रायः एहने सहज मुदा विशिष्ट रचनाशिल्पक कारणेँ हिनक “माटि मिथिलाक पूछए सुनू ध्यानसँ” बोलक गीतकेँ हम तीन अलग-अलग तालमे संयोजित करैत प्रत्येक अन्तराकेँ अलग-अलग धुन देबामे सफल भेल छी। गीतकेँ स्रोता/भावकद्वारा भेटल सम्मान आ स्थान ई सिद्ध करैत अछि जे ओ खालि एकटा प्रयोग नहि भऽ गीत-सङ्गीतकेँ अधिकाधिक सार्थक बनएबाक एक उपक्रम सेहो छल। निश्चित रूपेँ ई सार्थकता विलक्षण शब्दशिल्पक कारणेँ मात्र सम्भव भऽ पाएल छल।
जीवनक पछिला चरणमे जखन अनिवार्य प्रकृतिक सम्पूर्ण दायित्वसँ तृषितजी मुक्त भऽ गेलाहए तँ जुटि गेल छथि विशुद्ध अपनाप्रतिक दायित्वबोधमे। आ एहि क्रममे धार्मिक क्रियाकलाप एवं कार्यस्थलक निर्माण, प्रबन्धन तथा सुशोभनमे विशेष रूपसँ सक्रिय भऽ गेल छथि। अपन गाममे मन्दिर निर्माण कऽ ओहिठाम नियमित भजन–कीर्तन होइत रहबाक बन्दोबस्त कऽ आमजनक लेल सेहो थाकल मन आ झमारल तनक हेतु प्रभावशाली विश्रामालयक प्रबन्ध कएने छथि। ओही सन्दर्भकेँ आओर व्यापकता देबाक प्रयोजनसँ अनेक भक्तगीतक रचना सेहो करैत रहलाह अछि। हिनक एहि चरणक रचनासभ मैथिली भाषिक क्षेत्रकेँ आओर व्यापकता देबाक दृष्टिएँ सेहो महत्त्वपूर्ण अछि। हमरासभक समाज आइ जाहि तरहेँ बहुभाषिक बनि गेल अछि, तेहनमे आम लोकक लेल सर्वभाषा समन्वयक बात सेहो अनिवार्यसन भऽ गेल अछि। ताहूमे लोकतत्त्वक निर्माणक परिप्रेक्ष्यमे ई आओर अधिक कारगर तथा आवश्यक सेहो अछि। सम्भवतः एही तथ्यसभकेँ विचारिकऽ एक प्रसिद्ध हिन्दी फिल्मी गीत— “मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इङ्गलिशतानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दूस्तानी”क भावमे कवि मैथिली शिवगीतक रचना कएलनि अछि—
बनि कऽ दिवाना, काँवर उठाना, भरि कऽ खजाना रे।
देवघर जाना रे।।
एहिमे शब्दसभ भलहि सार्वभाषिक प्रकृतिक हो, मुदा ओहिमे क्रियापद मैथिलीक राखिकऽ ओहन समस्त सार्वभाषिक शब्दकेँ सुच्चा मैथिलीक बना लेनाइ कविक कौशल एवं मैथिलीभक्तिक सेहो सशक्त नमूना प्रस्तुत करैत अछि।
सङ्ग्रहमहक भक्तिगीतसभ निरपेक्ष भावेँ भगवत आराधना मात्र नहि करैत अछि, अपितु विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक विद्रूपतासभपर प्रहार करैत अछि आ नेपालमे हमरासभक मूलस्थल गामठामकेँ समटनिहार प्रदेश जे विशुद्ध रूपेँ मिथिला अछि, ताहिपर चलाओल गेल आ चलाओल जा रहल राजनीतिक कुचक्रकेँ तोड़बाक लेल अपन पक्ष सेहो प्रस्तुत करैत अछि। कवि “सर्वश्रेष्ठ पवनी, जानकी नवमी” शीर्षक रचनामे प्रदेशक वास्तविकता उजागर करैत छथि आ सरकारकेँ दायित्वबोध करबैत राजधानी जनकपुरधामक सम्पदासभपर मचि रहल लूटकेँ औँरिआबैत छथि—
बाबन कुटी बहत्तर कुण्डा, कोमहर सन्त आ कोमहर गुण्डा
आब कहाँ किछु झाँपल रहतै, ई सरकार बनत चामुण्डा
ई सरकार बेकारक नइ छै, भगतै सकल अधर्मी रे
अपन प्रदेशक पहिल पहिल ई, सिया जनमके पवनी रे
मैथिलीकेँ जाति, धर्म, राजनीति, भाषिक स्वरूप किंवा विविधता आदि विभिन्न नामपर तोड़बाक षड़यन्त्र निरन्तरजकाँ चलैत आएल अछि। एकरा कतेको सर्जकसभ अपन सहज-स्वाभाविक सृजनकर्मसँ चीरैत सेहो आएल छथि। एहि अभियानमे तृषितजी अपन गीतिकवितासभमार्फत आओर अलग रूपसँ सशक्त भागीदारी देखौलनि अछि। तिलक–चाननधारी ब्राह्मणसँ लऽकऽ खुर्पासँ बाँस छोलैत डोमधरिकेँ एक्कहि पतियानीमे बैसाकऽ मिथिला समाजक समग्र यथार्थकेँ सुन्दर ढङ्गसँ चित्रित कएने छथि विभिन्न तरहक शब्द संयोजनमे। भक्तिगीत सङ्ग्रह होएबाक कारणेँ एहिमे अनेक संस्कृतनिष्ठ शब्दसभ ओहुना यथेष्ठ अछि। एमकी, बिसबास, पवनी आदि शब्दसभक संयोजन एतेक कुशल ढङ्गसँ कएने छथि जे लोक इएह बूझत— खीरमे काजू–किसमसक सुन्दर सम्मिश्रण/संयोजनसँ एकरा स्वादिष्ट बनाएल गेल हो।
सामान्यतया अपन माटिपानिसँ सभ चिन्हल जाइत अछि। कवि तृषित प्रत्यक्षतः परलोकक चिन्तनमे भक्तिगीतक रचना आ गायन तँ करिते छथि, मुदा अपन माटिकेँ सेहो चिन्हएबाक आकांक्षा रखैत छथि। सेहो कोनो नव रूपेँ नहि, यथार्थतः ई जे अछि बस्स ताही रूपेँ। अपना लेल आओर कोनो विशिष्ट पहिचानक वर नहि माङि बस्स एक मैथिलक रूपमे चिन्हल जएबाक वरदान मङैत छथि—
तन स्वस्थ रहए मन शान्त रहए, प्रभु! बस एतबे वरदान दिअ
मिथिलाके गौरव बढ़ा सकी, बस मैथिलसन पहिचान दिअ
वस्तुतः समग्र कृतिमे कवि पिआसल देखल जाइत छथि अर्थात अपन उपनामेजकाँ तृषित छथि। मुदा ई तृष्णा अपना लेल वा अपना कारणेँ नहि, समाजक/लोकक सुखाइत कण्ठक मर्मकेँ विचारैत ओ अपनामे अवधारने छथि। एहिसँ सम्पूर्ण रचनासभ लोकक रचना बनि गेल अछि आ एहि पोथीक माध्यमेँ ई आओर जन-जनक बनि गेल अछि ताहिपर कोनो सन्देह नहि। मुदा लोकक लेल कविक ई तृष्णाकेँ देखि, पढ़ि, सूनिकऽ लोक तृप्त होइत रहत, से हमर विश्वास अछि।