‘हँ कहुँ भाई’, चौकीक थानेदार कानपर चढ़ल जनउ उतारैत पुछलाह ।
‘सई साहब, हमर मोबाइल चोरी भऽ गेल अछि’, दिकपाल भाई कहलन्हि ।
‘तऽ हम की करु ?’
‘हम सभ जाहेरी देबए आएल छी ।’
‘एहिसँ कि हएत…..एँ…..अपने, अपन समान सम्हारि कऽ नहि राखि सकैत छी, एम्हर ओम्हर भऽ गेल, आबि गेलहुँ डण्डा करए । कोनो जादुक छड़ी छैक पुलिस लग, अपराधीकेँ पाछुमे जा कऽ रुकि जाएत ।’
♦ सुजीतकुमार झा
प्रत्येक दिन जकाँ बितल राति भोर ४ बजे सुतलहुँ आ करीब–करीब ११ बजे सुति कऽ उठल हएब । एखन जलपान कइए रहल छलहुँ की दिकपाल भाईकेँ टेलिफोन आएल, ‘युगल, की कऽ रहल छी एखन ?’
‘जी, भाईजी ।’
‘साँझमे खाली छी की ? इहे करीब ३ बजेसँ ।’
‘हँ, मुदा की बात छैक भाईजी’, हम कहलहुँ ।
‘कोनो खास बात नहि, साँझमे सिरहाक मिर्चैया जा रहल छी । दोसर प्रदर्शनीक लेल किछु पेन्टिंग्स तैयार करबाक अछि…सोचलहुँ, अहुँकँे सँग लऽ चली आ अहुँ तऽ कहने छलहुँ….।’
‘हँ..हँ भाईजी, हम आबि रहल छी । कहल जाउ कतए एबाक छैक ?’
‘ग्यालरी आबि जाउ, एतहिसँ चलब ।’
‘ठीक छैक, भाईजी ।’
पेन्टिंग्समे हमर रुचि एखन नव–नव जन्म लेलक अछि आ दिकपाल भाई एकटा चित्रकार छथि । अपन पेन्टिंग्सक लेल दृश्य कोना चुनैत छथि आ ओकर पेन्टिंग्सधरि पहुँचैत–पहुँचैत ओ दृश्य कोन तरहेँ सार्वभौमिक दृश्यमे रुपान्तरित भऽ जाति अछि । ई सभ जानए बुझबकँे लेल हमरा लग दिकपाल भाईसँ बढि़याँ कोनो दोसर नाम नहि अछि । दिकपाल भाई अपन पेन्टिंग्समे अपन परस्पर बिरोधी रंगसँ मूर्त आ अमूर्तक एहन द्वन्द कोरैत छथि, हुनक ब्रसकँे चुमएकेँ मन करए लगैत अछि । किछु एहितरहेँ रंगक, किछु छिटका चेहरापर सेहो परि जाए ।
अपने सोचि रहल हएब, हम केँ छी ? आ रंगमे अचानक एतेक उत्सुक किए भऽ रहल अछि…। तऽ श्रीमान अपनेक सेवक रंगकर्मी अछि आ रंगसँ खेलब हमर पेशाक एकटा आवश्यक भाग अछि । जी हँ, पेशासँ रंगकर्मी छी । हम देखए चाहैत छी, मञ्चपर किछु गतिशील रंगारंगक पेन्टिंग्स तैयार भऽ सकैत अछि कि नहि ?
मानि लिअ, मञ्च एकटा फ्रेम अछि तऽ एहि फ्रेमक भीतर लगातार बदलैत जादुबला दृश्यक एक श्रृंखला… मुदा एखन तऽ हम अपनेसभसँ कोनो दोसर बात करए जा रहल छी । हमरासँग समस्या अछि, हम बराबर बहकि जाइत छी । हमर कहब अछि, सोचबाक लेल तऽ कोनो ट्याक्स नहि लगैत अछि तऽ सोचएमे की जाइत अछि ? हम अपन कल्पनाकेँ अन्तिमधरि फैलए दैत छी । ओना एकरे कारण कतेकोबेर कोनो चीजकँे समेटएमे दिक्कत भऽ जाइत अछि आ दृश्य बिखरि कऽ रहि जाइत अछि । मुदा एखन तऽ अपनेसँ दिकपाल भाईकँे बात करए जा रहल छी ।
केँ छथि दिकपाल भाई ? अपने सभ हुनका नहि जनैत छियैन्हि ? पत्रिका नहि देखैत छी अपने ? एक्के हप्ता पहिने संचारमन्त्रीसँ पुरस्कार लैत हुनक फोटो पत्रिकासभमे छपल छल । आ हमर दाबी अछि, अपने हुनका एकबेर देखि ली फेर कहिओ नहि बिसरब । लम्बा चौड़ा शरीर, आकर्षक गोर रंग, उन्नत ललाट, बड़का–बड़का केश आ खीचड़ी दाढ़ी । जीन्स आ कुर्ता हुनक बारहो मासक पहिरन अछि । कहिओकाल हुनका धोती कुर्तामे सेहो देखि सकैत छी, कन्हापर एकटा गम्छा सदिखन रहैत अछि, आ आबाज…आबाजकेँ तऽ की कहीँ गहीँर इनारसँ छानि कऽ धीर गम्भिर मुदा टनकदार आबाज । एहि टनकदार आबाजमे हुनका बहुतरास सामाजिक सांस्कृतिक मुद्दा पर बजैत बतियाइत एकबेर सुनि ली, एकहिबेरमे अपने हुनक फ्यान भऽ जाएब ।
दिकपाल भाईकेँ पसिन करएबला संसारभरि पसरल अछि, नहि जानि कतए–कतएसँ चिट्ठीसभ अबैत रहैत अछि । एहि चिट्ठीसभकँे ओ अपन आर्ट ग्यालरीक एकटा कलात्मक स्थान बना कऽ रखने छथि । नहि जानि कतेक पुरस्कार, तगमा, स्मृति चिन्ह, सरकारी कमिटीक सदस्य, कतेको संस्थाक अध्यक्ष आ कतेकोकँे संरक्षक । आई काल्हि हम दिकपाल भाईकँे जमि कऽ मख्खन लगबैत रहैत छी आ शीघ्रे एकर पुरस्कार सेहो भेटल अछि । हमरा जेहन जुम्मा–जुम्मा आठ दिनक निर्देशककेँ ओ अपनासँगे घुमाबएकँे लेल अवसर देलन्हि अछि ।
तऽ हम ३ बजे दिकपाल भाईकेँ आर्ट ग्यालरीमे पहुँच गेलहुँ । दिकपाल भाई हमर प्रतीक्षा कऽ रहल रहथि आ बैसल–बैसल प्रतीक्षाक स्केचेज बना रहल छलथि ।
‘एखने चलैत छी’, दिकपाल भाई कहलन्हि, ‘तखनिधरि अहाँ चाही तऽ सिगरेट पी सकैत छी ।’
‘हँ, हँ किए नहि’, सिगरेट पिबैत रहलहुँ आ दिकपाल भाई अपन काजमे लागल रहलथि । सिगरेट एखन समाप्तो नहि भेल छल, दिकपाल भाई अचानक उठलाह आ बजलाह, ‘चलु चलैत छी… ।’
हम चौँक गेलहुँ । दिकपाल भाईकँे टेबुलपर सभ किछु ओहिना पसरल छल । रंग पेन्सिल, कागत, रब्बर, स्केचेज, आदि–आदि ।
दिकपाल भाई बिहुँसलाह, ‘तऽ की भेलैक ? हमर अनुपस्थितिमे हमर कोनो चीजकेँ छुबएकेँ केँ हिम्मत कऽ सकैत अछि ।’
तए भेल, हम एक्केटा मोटरसाइकिलपर चलब । हम अपन मोटरसाइकिल ओतहि लगा लेलहुँ आ मिर्चैयाक लेल निकलि पड़लहुँ । बाटमे दिकपाल भाई कहलन्हि, ‘युगल पहिने नवरंग होटलमे बगेरी चुरा खा लैत छी, फेर चलैत छी । हमसभ बगेरी चुरा खा कऽ निकलले छलहुँ की हम पेलहुँ, दिकपाल भाई अस्त व्यस्तसँ किछु खोजि रहल छथि कखनो एहि जेबमे, कखनो ओहि जेबमे ।
‘की भेल भाईजी’, हम पुछलहुँ ।
‘हमर मोबाइल नहि भेटि रहल अछि’, कहैत दिकपाल भाई फेरसँ नवरंग होटलमे पसि गेलथि । बाहर निकललाह तऽ हम देखलहुँ, हुनक माथपर पसिनाक बुन्द सभ चलि आएल छल आ हुनक आबाज काँपि रहल छल ।
‘भाईजी कनीक ध्यानसँ देखिऔ ने’, कहबाक लेल हम कहिदेलहुँ मुदा एखनधरि दिकपाल भाईकँे कोनो जेब नहि छल, ओहो जगहकेँ कतेकोबेर ताकि चुकल छलाह ।
‘की पत्ता आर्ट ग्यालरीमे छुटि गेल हएत’, हम कहलहुँ आ अपन मोबाइल निकालि लेलहुँ, ‘हम रिंग कऽ कऽ देखैत छी…’, कल लागएसँ पहिने समाप्त भऽ जाइत छल । अर्थात मोबाइलक सुईच अफ छल वा मोबाइल नेटवर्कमे नहि छल ।
‘आब की हएत…’, दिकपाल भाई निराश भऽ कँपैत आबाजमे कहलाह, ‘३० हजारक सेट एकहँु महिना नहि भेल छल ।’
‘भऽ सकैत अछि स्वयं अपने मोबाइल अफ कऽ कऽ रखने हएब’, हम उम्मिदक एकटा किरण फेकलहुँ आ दिकपाल भाई लपकि लेलन्हि ।
‘हँ स्केचेज बना रहल छलहुँ, भऽ सकैत अछि हम एकरे कारणसँ अफ कऽ कऽ रखने होइ, अवश्य हम एना कएने हएब ।’
हम किछु देरमे फेरसँ दिकपाल भाईकेँ आर्ट ग्यालरीमे छलहुँ । क्षणभरिमे दिकपाल भाईकेँ टेबुलपर पसरल सामान आओर पसरि गेल छल आ दिकपाल भाई एतए ओतए आ उपर निचा ताकि रहल छलथि, हमहुँ एना किछु करैतसँग दऽ रहल छलहुँ मुदा किछुए देरमे हम बुझि गेल छलहुँ, हमर सभक प्रयासक कोनो अर्थ नहि अछि । मोबाइल सहीमे कतहुँ खसि चुकल अछि ।
‘चलु प्रहरी चौकी चलैत छी’, दिकपाल भाई कहलन्हि । एहिबीच हम बराबर दिकपाल भाईकेँ हेराएल मोबाइलपर रिंग कऽ रहल छलहुँ । ओना त ई बात तए छल, ओ मोबाइल अफे रहएबला छल । मुदा उम्मिदक किरण एतेक जल्दी थोरे छोड़ल जाइत अछि । हमसभ प्रहरी चौकी पहुँचलहुँ ।
‘हँ कहुँ भाई’, चौकीक थानेदार कानपर चढ़ल जनउ उतारैत पुछलाह ।
‘सई साहब, हमर मोबाइल चोरी भऽ गेल अछि’, दिकपाल भाई कहलन्हि ।
‘तऽ हम की करु ?’
‘हम सभ जाहेरी देबए आएल छी ।’
‘एहिसँ कि हएत…..एँ…..अपने, अपन समान सम्हारि कऽ नहि राखि सकैत छी, एम्हर ओम्हर भऽ गेल, आबि गेलहुँ डण्डा करए । कोनो जादुक छड़ी छैक पुलिस लग, अपराधीकँे पाछुमे जा कऽ रुकि जाएत ।’
‘सर, अपने हमर बात सुनब’, दिकपाल भाई आबाजपर जोड़ दैत बजलाह ।
‘हँ भाईजी, किए नहि ? अपनेक बात सुनबाक अतिरिक्त हमरालग काजे की अछि ? एँ ?….चलि अबैत छी नहि लेबएकँे अछि नहि देबएकेँ…. हबल्दार साहब देखू भाईजी की कहैत छथि ? बुद्धिजीवी लगैत छथि कनी बढि़या जकाँ देखबन्हि’, बगलबला रुमदिस इशारा कएलन्हि ।
हम सभ हबल्दार साहबकेँ रुममे पहुँचलहुँ । हबल्दार साहब हमरा सभकँे बैसबाक लेल सेहो नहि कहलन्हि । ओ निचा देखैत किछु लिखैत रहलाह आ लिखएकँे अभिनय करैत रहलाह । हबल्दार साहबक पाछु लक्ष्मी, गणेश आ सरस्वतीक मूर्ति टांगल छल । गेटे लग एकटा २५–२६ बर्षक लड़का ठाढ़ छल । ओ डेराएल छल आ ओकर आँखि फाटि कऽ बाहर निकलएपर छल । ओ ओहेँ फाटल–फाटल आँखिसँ एम्हर ओम्हर देखि रहल छल । हमसभ किछु कहितहुँ, ओहिसँ पहिने ओ लड़काकँे घेघियाइत आबाज आएल, ‘साहब आब तऽ छोडि़ दिअ, आब तऽ उतरिओ गेल अछि ।’
‘चुप्प हरामजादा, भेजा चाटि कऽ राखि देलक । उम्हर दूर बैसि ।…हँ अपनेसभ कोना ?’ पुछैत हुनक आँखिमे एकटा चमक आएल आ तुरन्ते समाप्त भऽ गेल ।
‘हँ कहँु ?’
‘सर, हमर ३० हजारक मोबाइल चोरी भऽ गेल अछि’, दिकपाल भाई विनम्र स्वरमे कहलाह ।
‘एतेक महँग सेट अपनेसभ रखबे किए करैत छी … बाइ द वे कतए खसि पड़ल मोबाइल ?’
‘हम शिवचौक भऽ कऽ मिर्चैया जा रहल छलहुँ बाटमे दोकानपर रुकि कऽ पान खेलहुँ अवश्य किओ…।’
‘अपने दुनू गोटे सँगे छलीयै ?’
‘हँ ।’
‘मोबाइल कतए रखने छलहुँ ?’
‘कुर्ताक जेबमे ।’
‘जेब देखाउ ।’
दिकपाल भाई तिर्छा भऽ कऽ जेब हबल्दार साहबकँे आगा कएलन्हि ।
‘कटल तऽ नहि अछि, आब हम एकरा बारेमे की कहुँ ।’
‘तऽ कँे कहत ?’
‘कतहँु खसि पड़ल हएत । हेराएल चीजकँे चोरी भेल किए कहि रहल छी ? मोबाइलोकेँ बीमा तीमा होबए लागल अछि की ?’
‘हम हरेक समय मोबाइल अपना कुर्ताक जेबमे रखैत आएल छी, आईधरि तऽ नहि खसल अछि, हात लगा कऽ किओ निकालि लेने हएत ।’
‘आ… अहाँकँे पत्तो नहि चलल ?
‘नहि । पत्ता चलल रहैत तऽ….’
एहिबीचमे हम दिकपाल भाईकेँ एकटक देखि रहल छलहुँ । दिकपाल भाई पूरापुर झूट बाजि रहल छलथि, हमसभ बाटमे पान खएबाक लेल कतहँु नहि रुकल छलहुँ । दिकपाल भाई निचाक जेबमे मोबाइल कहिओ नहि रखैत छलथि । दिकपाल भाई मोबाइल जनउ जकाँ पहिर कऽ रखैत छलाह । हँ, कहिओकाल मोन भेल तऽ उपरका जेबमे राखि लैत छलथि । एकदम हृदयक नजदिक । हम तऽ हुनकासँ कतेकोबेर कहने छलहुँ, ‘भाईजी एतए मोबाइल राखब हृदयक लेल खतरनाक होइत अछि ?’
दिकपाल भाई हरेकबेर बिहुँसि कऽ एकहिटा उत्तर दैत छलाह, ‘हृदय कोन बेवकुफ लग अछि ।’
एतएसँ निकलि कऽ दिकपाल भाईसँ झूटक विषयमे पुछब, हम सोचलहुँ ।
‘ओहि सड़कपर की करए गेल छलहुँ ?’ हबल्दार साहब पुछलन्हि ।
‘ओतए हमर आर्ट ग्यालरी अछि ।’
‘आर्ट ग्यालरी ? ई कि होइत अछि ?’
दिकपाल भाई असहजतासँ हमरा दिस देखलाह । हमरा स्वयं एहन प्रश्नकेँ अपेक्षा नहि छल ।
‘हमर पेन्टिंग्स आ मूर्ति, हमर मतलब लकड़ीक मूर्तिक दोकान अछि’, दिकपाल भाई रुकि–रुकि कऽ सम्झौलन्हि ।
‘लकड़ीओकँे मूर्ति होइत अछि ? केँ किनत ओकरा, जल चढ़बैत–चढ़बैत तऽ सडि़ जाइत हएत ?’ ई हबल्दार साहब छलाह ।
हमरा हँस्सी आबि गेल मुदा कोनो तरहेँ हम अपन हँस्सी रोकलहुँ । दिकपाल भाईकेँ चेहरापर तनाव देखा रहल छल । मुदा ओ नम्र भावमे चलि आएल छलाह ।
‘भाईजी लकड़ीकेँ शिल्प आ मूर्ति लोक अपन कलात्मक अभिरुची आ घर सजाबएकेँ लेल किनैत अछि, ओहिपर जल नहि चढ़ाएल जाइत अछि ।’
‘भगवानक मूर्ति सजाबएकेँ लेल ? भाई वाह–वाह, आब आएल असली कलयुग’, हबल्दार साहब अजिबसन मुँह बना कऽ हँसलाह ।
‘भाईजी ओ भगवान तगवानक मूर्ति नहि होइत अछि, ओ तऽ कलाकृति…’,फेर दिकपाल भाई शायद ई सोचि कऽ चुप भऽ गेलाह, हबल्दार साहबकेँ सम्झाएब अपना बुताक बात नहि अछि ।
‘देखू अहाँसभ पढ़ल लिखल लोक बुझाइत छी, बुद्धिजीवी होबएकेँ मतलब ई नहि अछि लोक भगवानकेँ सम्माने करब बिसरि जाए ।’
‘जी ऽऽ’, दिकपाल भाई आबाजपर जोड़ दैति कहलन्हि ।
‘ठीक छैक’, हबल्दार साहब कहलन्हि, ‘लोकेन्द्रकँे जनैत छीयैक ?’
‘कोन लोकेन्द्र ?’
आब ई लोकेन्द्र कतएसँ चलि आएल ? दिकपाल भाई किछु तनावपूर्ण अवस्थामे हमरादिस तकलाह, आब एहि प्रसंगमे हमरा मज्जा आबए लागल छल । जतेक हम दिकपाल भाईकँे जनैत छी, हम चकित छी जे एखनिधरि ओ फाइट किए नहि रहल छथि ? हुनक सम्पर्क उपरधरि अछि । हबल्दार साहब चाहिओ कऽ हुनका किछु नहि बिगारि सकैत अछि । मुदा एतए तऽ बेसीसँ बेसी हुनक चेहरापर तनाव देखा रहल अछि, ओहो देखएसँ पहिने गाएब भऽ जाइत अछि आ शीघ्र हुनक चेहरापर नम्रता टप्कए लगैत अछि । तऽ सीन किछु एहितरहेँ बनैत अछि…दिकपालभाईकँे चेहराक तनाव, हुनक दाढ़ीसँ टप्कैत नम्रता…बगलकँे रुमक लड़का….आ ओकर फाटल आँखि….तिलक लगौने, पान चबौने, टांग फैलौने हबल्दार….हबल्दारक पाछु भगवानक मूर्ति….जल चढ़ाबएसँ सडैÞत अछि लकड़ीक मूर्ति आ आब लोकेन्द्र । वाह पूरापुर एकटा एब्सट्रेक्ट नाटक । तऽ चलु देखैत छी ई लोकेन्द्र छथि कँे ?
‘लोकेन्द्रकेँ जनैत छीयैक’, हबल्दार पुछलन्हि ।
‘कँे छथि लोकेन्द्र ? अपने कहीँ ओहि लोकेन्द्रकँे बात तऽ नहि करैत छी, हमर आर्ट ग्यालरीमे काज करैत छल ।’
‘ओहेँ लोकेन्द्र हमरे गामक छल । हम ओकरासँ भेटए एक दूबेर ….अहाँक दोकान…।’
‘ओ…..तऽ लोकेन्द्रक गामकेँ अपने छीयै ? बहुत ईमान्दार आ सज्जन लोक छल, लोकेन्द्र । कतए अछि आई काल्हि ?’
‘हँ, हँ हम चिन्हैत छी’, हबल्दार साहब कहलन्हि, ‘अहाँ एना करु एकटा कागत पर पूरे घटनाक विवरण लिख कऽ दिअ ।’
दिकपाल भाई अपना झोरासँ कागत निकाललाह आ ओहिपर लिखए लगलाह । हबल्दार साहब अप्रिय नजरिसँ हमरा देखए लगलाह । दिकपाल भाई भूmट पर झूट बाजि रहल छलाह । हुनक ई रुप हमरा लेल अप्रत्याशित रुपसँ चौंकाबएबला छल । आब स्मरण अबैत अछि, दिकपाल भाई एकबेर स्वयं कहने रहथि, सज्जन आ ईमान्दार लोकेन्द्रकँे ओ चोरीक आरोपमे निकालि देने छलथि । शायद हबल्दार साहब सेहो ई बातकेँ जनैत होइथ । शायद की पक्का ओ जनैत हेताह । तखन ने ओ हमरासभसँ एहि तरहेँ प्रस्तुत भऽ रहल छथि ।
दिकपाल भाई पूरा विवरण लिख पबितथि एहिसँ पहिने एकटा अदृश्य गन्ध पूरे वातावरणमे पसरि गेल । केँ कएने हएत ई, हम सोचलहुँ । फेर ई सोचलहुँ, नाक दबा ली मुदा शीघ्र ध्यान आएल, कतहुँ हबल्दारे साहब एना कएने हएताह आ हम नाक दबाबी आ एकरा ओ अपमान बुझि लैथि । हम देखलहुँ, दिकपाल भाई पर कोनो चीजकेँ कोनो असर नहि पड़ल । ओ लिखएमे डुबल छलाह । रहल हबल्दार साहबकँे तऽ कखनो दिकपाल भाई दिस देखि रहल छलथि तऽ कखनो लड़का दिस । अन्तमे हबल्दार साहबकँे नजरि लड़का दिस जा कऽ टिक गेल ।
‘हम नहि पदलहुँ साहब’, लड़का कनैत आबाजमे बाजल ।
‘उम्हर जो साला, पूरे चौकी गन्हा देलक ।’
‘हम किछु नहि कएलहुँ ।’
‘…साहब’, लड़का फेर नेहोरा कएलक, ‘आब तऽ उतरिओ गेल अछि, अपनेसभ हमरा छोडि़ किए नहि दैत छी ?’
हबल्दार साहब उठलाह आ ओ लड़काकँे कसि कऽ एक लात मारलन्हि । लड़का पीड़ासँ कुहरि रहल छल ।
‘चुप्प बैसि, माधर….। साला तोहर बापकेँ घर छौक की ? जखन मोन भेल चलि एलहुँ, जखन मोन भेल चलि गेलहुँ ।’
लड़का आओर सिकुडि़ कऽ बैसि गेल आ नहि सुनाई देबएबला आवाजमे कुहरए लागल । ओकर फटल आँखि कनीक आओर फाटि गेल छल ।
दिकपाल भाई पूरा विवरण लिखि कऽ हबल्दार साहबकेँ दऽ देलन्हि । हबल्दार साहब पढ़लन्हि आ हमरा दुनू गोटेकँे एक–दू स्थानपर हस्ताक्षर करौलन्हि । एकरबाद हमसभ हबल्दार साहबसँ हात जोड़ैत, ‘ठीक छैक सर…’, कहलहुँ आ बाहर आबि गेलहुँ । हबल्दार साहबक नजरि एखनो हमरासभक पीठपर चुभि रहल छल । जरुर ओ हमरासभकँे गाढि़ पढैÞत हएताह ।
‘आब ?’ दिकपाल भाई पुछलन्हि ।
आब ? हमहँु प्रश्नक नजरिसँ तकलहुँ ।
‘आब एक्सचेन्ज चलैत छी आ सीम ब्लक करबा दैत छी ।’
अचानक हमरा किछु स्मरण आएल । ‘दिकपाल भाई एकटा बात
पुछु ?’
‘हँ ।’
‘अपने एखनि झूटपर झूट बजैत जा रहल छलहुँ ?’
‘हम झूट बाजि रहल छलहुँ ? हम की झूट बजलहुँ ?’
‘ई की अपनेक मोबाइल पानक दोकानपर चोरी भेल ?’
‘अहाँ तऽ भकोल छी ?’ दिकपाल भाई भौं चढ़ौलन्हि, ‘की बतबितहुँ, हम सभ बगेरी खाए गेल छलहुँ । ओ साला हबल्दारकँे ठोप नहि देखने रहीयै ?’
‘तऽ अपने ओकर ठोपसँ डेराए गेल छलियै ?’ हम मजाकमे कहलहुँ ।
‘सेट अप ।’
‘भऽ जाएब सेट अप । मुदा एखनि हमर बात कहाँ भेलकि पूरा । अपने लोकेन्द्रक विषयमे सेहो झूट बाजल छी । स्वयं अपनही बतौने रही, ओ चोरी कएने छल । स्वयं अपने ओकर झोरासँ हनुमानक मूर्ति पकड़ने रही । एहिद्वारे अपने ओकरा निकालने छलहुँ ।’
‘तऽ ?’
‘तऽ आई ओहँे लोकेन्द्र ईमान्दार आ सज्जन लोक कोना भऽ गेल ?’
तऽ दिकपाल भाई आब निश्चित रुपसँ तमसा रहल छलथि ।
‘तऽ कि अपने कहुँ ?’
‘आब ईहो अहाँकेँ बताबए पड़त । देखलहुँ नहि, ओ साला कोना जिद्द कऽ रहल छल । उपरसँ ओ कमिना, लोकेन्द्रक सहोदर निकलल आओर हम कि करितहुँ ? हमरा तऽ लागि रहल छल ओ चोट्टा अहुँकेँ कोनो सम्बन्धिक हएत ।’
दिकपाल भाई आब हमरोपर तमसा रहल छलथि । हम हुनक बातक जबाब दैतहुँ, मुदा देलहँु नहि । ओहिना दिकपाल भाईकँे नम्बर मिलाबए लगलहँु ।
अत्यधिक आश्चर्य । तुरन्त, सभसँ सुन्दर मिथिलाधाम… सुनाई पड़ल आ हम शीघ्र काटि देलहँु फेर दिकपाल भाई दिस तकलहुँ ।
‘भाई जी घण्टी जा रहल अछि, हम कि करु ?’
‘कि करु, गजबकेँ लोक छी अहाँ । ओकरा फेरसँ मिलाउ आ बात करु ओकरासँ ।’
हम फेर मिलेलहुँ आ दोसर दिससँ मोबाइल उठल, जेना पहिनेसँ किओ तैयार बैसल हुए ।
‘हेल्लो’, नसामे डुबल आवाज आएल ।
‘कृपा निधान अपने कतए छी ?’ हम पुछलहुँ ।
‘हम कृपा निधान नहि छी’, उम्हरसँ लड़खड़ाइत आवाज आएल ।
‘तऽ केँ छी अपने, इहे बता दीअ ।’
‘मोहम्मद नुरेन ।’
‘नुरेन भाई अपने कतए छी ?’
‘एहि संसारमे छी भाईजी, अपने कहुँ ।’
‘स्थान तऽ बताउ, अपने कतए छी ?’
‘स्थानकँे की छैक…भट्ठीमे दारु पीब रहल छी ।’
लागल जेना ओकरालग आओर बहुत लोक बैसल हुए आ ओकर बातपर आओरो व्यक्तिकेँ आवाज गुञ्जि रहल हुए । अर्थात ओ सहीमे भट्ठीमे बैसल हुए । साले पियक्कड़ । हम मोनेमोन गाढि़ पढ़लहुँ । दिकपाल भाई अपन कान मोबाइलसँ सटा कऽ रखने रहथि । तामस हुनक चेहरापर साफ देखा रहल छल । चौकीबला विनम्रता पत्ता नहि कतए गाएब भऽ गेल छल । हम किछु कहितहुँ एहिसँ पहिने दिकपाल भाई मोबाइल हमरा हातसँ छिन लेलन्हि आ मोलाएम स्वरमे कहलन्हि, ‘भाईजी अपने जे किओ होइक मोबाइल हमरा फिर्ता दऽ दिअ । हम एतए परेशान भऽ रहल छी आ अपने बैसि कऽ दारु पीब रहल छी ?’
‘मोबाइल ? केकर मोबाइल ?’ लड़खड़ाइत आवाजसँ पुछलक ।
‘हमर मोबाइल, जाहिसँ तोँ बात कऽ रहल छेँ ।’ दिकपाल भाई अपनेसँ तोँपर चलि आएल छलाह ।
‘कथिलाए मजाक कऽ रहल छी भाईजी ? अपनेक मोबाइल तऽ अपनेलग होएबाक चाही, ई तऽ हमर अछि ।’
‘ई तोहर कोना भऽ गेलहुँ ?’ दिकपाल भाई आवाजपर जोड़ देलन्हि ।
‘हमरा सड़कपर भेटल तऽ हमरे भेल ने ?’
‘सड़कपर भेटल कोनो चीज तोहर कोना भऽ गेलहुँ ?’ दिकपाल भाई आब पटरीपरसँ पूरे उतरि चुकल छलथि ।
‘एना भऽ गेल भाईजी, ओ दोसरकेँ नहि भेटल । अल्लाह हमरा झोरीमे खसा देलन्हि ।’
आब दिकपाल भाई दाँत पिस रहल छलथि, ‘किए परेशान कऽ रहल छअ तोँ हमरा ? तोँ काज की करैत छअ ?’
‘हड्डी गलबैत छी अर्थात रिक्सा चलबैत छी । अपने कमाइत छी, खाइत छी ….पिबैत छी ।’
‘मेहनतकेँ कमाइ खाई छअ तऽ हमर मोबाइल फिर्ता कऽ दऽ । तोरालग एकर बील भरएकँे पैसा कतएसँ एतह ?’
‘नहि देबै बील–तील ।’
‘तऽ फेर तोहर ई कोन काजक ?’
‘काजकेँ कोना नहि ? हमर सुल्तान खेलत एहिसँ ।’
‘देखबेँ , सही ढंगसँ मोबाइल फिर्ता दे नहि तऽ पुलिसमे सिकाएत कऽ देबहुँ ।’
‘कऽ दीऔ, जाहेरी–ताहेरी , आब थानेदार बाबू एताह तखने मोबाइल भेटत ।’
एहिसँ पहिने दिकपाल भाई गाढि़ पढ़ए लगताह हम हुनकासँ मोबाइल हातमे लेलहुँ आ काटि देलहुँ । दिकपाल भाई उत्तेजनाक कारण काँपि रहल छलथि । हुनक मुँहसँ फेन आबि रहल छल । ओ विभत्स भावसँ थुकलन्हि, जेना केकरो उपर थुकि रहल होइथ । कनीक थुक हुनक कुर्तापर सेहो पडि़ गेल जेकरा ओ, अपन गमछासँ पोछि लेलन्हि । फेर अचानक गाढि़ पढ़ए लगलाह, ‘साला हरामी हमरासँ खेलि रहल अछि ।’
फेर दिकपाल भाई जोरसँ चिचियाइत कहलन्हि, ‘चलु चौकी ।’
‘चौकी चलि कऽ की करब ? जे बात ओ रिक्साबलाकेँ पत्ता अछि ओ अपनेकेँ नहि । पुलिस कोना बुझत, ओ कतए अछि आ जानहो किए चाहत ?’
‘मोबाइल लाउ हम एखने एसपीकँे फोन करैत छी, देखैत छी साला कतएसँ बचि कऽ निकलैत अछि ।’
‘आब सभकिछु छोडि़ दिअ, आब अन्दाज लगाउ, अपनेक मोबाइल कतए खसल अछि ?’
‘खसल अछि ? अहाँकँे एखनो लगैत अछि, खसल अछि ? ओ कमिना कतहुँ अवसर पाबि कऽ हात साफ कऽ देलक अछि ।’
‘इहे सही भाईजी तऽ अपनेकँे मोबाइल कतए निकालने हएत ?’
दिकपाल भाईकेँ जे रुप हमरा आगा आबि रहल छल, हम हुनका विषयमे सोचए नहि चाहि रहल छलहुँ, मुदा हमरा भीतर ओहेँ टुटैत, दरकैत छबी उमडि़–घुमडि़ रहल छल । इहे व्यक्तिकेँ हम एतेक इज्जत करैत छी ? हम तुरन्त हुनकसँग छोडि़ देबए चाहैत छलहुँ मुदा एना कऽ पबितहुँ एहिसँ पहिने हमर पेशेवर दिमाग हमरा धिक्कारए लगैत छल ।
‘केहन रंगकर्मी छी युगल ? तोरा एकटा चरित्रक विषयमे, ओकर तहक विषयमे एतेक किछु जानएकेँ अवसर भेटि रहल छौक आ एकटा तोँ छेँ जे…आ एखनि तऽ तोरा मोहम्मद नुरेनसँ सेहो भेटबाक छौक…. तऽ….।’
‘भाईजी अपनेकँे मोबाइल कतए खसल हएत ?’
‘शिवे चौककेँ आसपासमे कतहुँ एहिबीचमे कोनो भट्ठी छैक ? हमरा हिसाबसँ एक–दूटा माछ बजारलग आ एक दूटा कदम चौक लग सेहो छैक, कारण ओहिसभ बाटे शिवचौक गेल छलहुँ ।’
‘चलु भट्ठी चलैत छी’, हम कहलहुँ ।
‘ओतए जा कऽ करब की ?’
‘शायद ओ ओतहि हएत ।’
किछुए देरमे हमसभ माछबजार लगक भट्ठीमे पहुँच गेलहुँ, बगलमे गन्हाइत नाली छल, ओतहि तरैत माछ आ भुज्जा भेटि रहल छल । जाहिपर गन्दाक एकटा परत जमल छल, माछी सेहो भिनभिना रहल छल, भीतर घुसिते कच्चा दारुक तिख्ख गन्ध हमरा नाकसँ टकराएल । भीतर बीमार पियर उज्जर आ धुँधला जेहन माहौल छल । देबालपर कैटरिना कैफसँ लऽ कऽ करिना कपुरक पोस्टर दारु पियबलासभकेँ नशाकेँ दूगुन्ना करएमे जुटल छल । तऽ एहन माहौल आ एहिमे हम दू गोटे सम्मानित बुद्धिजीवी । भीतर पहुँचिते भट्ठीकँे पूरे माहौल एना अस्त–व्यस्त भऽ गेल जेना मधमाछीक बीच भेम घुसि गेल हुए । भट्ठीबला कुदि कऽ हमरासभ दिस आएल ।
‘कि चाही श्रीमान ?’
‘किछु नहि, तोँ सभ अपने स्थानपर बैसऽ’, दिकपालभाईकँे आवाजमे किछु एहन छल, भट्ठीबला तुरन्त हटि गेल ।
हमसभ हरेक व्यक्तिकेँ संदिग्ध नजरिसँ देखि रहल छलहुँ । किछु बुझएमे नहि आएल तऽ हम मोबाइलपर फेर दिकपाल भाईकेँ नम्बर मिलेलहुँ । तुरन्त एहन सुन्दर मिथिलाधाम… सुनाई देबए लागल । मुदा भट्ठीमे ककरो घण्टी नहि बाजल । सत्य छल, मोबाइल एतए नहि छल । हमसभ पुछताछ कएने बीना फिर्ता भऽ गेलहुँ । आब हमरा हमरसभक बेवकुफी बुझएमे चलि आएल । हमसभ बीना एहि बातपर बिचार कएने ओ कोन भट्ठीमे भऽ सकैत अछि आ ओहिना भट्ठीमे घुसि गेलहुँ ।
हमरासभकँे मोबाइल हेराएकेँ पत्ता शिवचौकलग चलल छल, एहि हिसाबसँ मोहम्मद नुरेनकँे कदम चौक लग होबएकेँ सम्भावना अछि ।
हम सभ कदम चौकबला भट्ठीमे पहुँचलहुँ दुःखक बात, ओ किछुए देर पहिने ओतएसँ निकलल छल । एतबे नहि एतए मोबाइलकेँ लऽ कऽ हल्ला सेहो भेल छल कारण दारु पिबएबलामेसँ एक–दूगोटे एहन छल, मोबाइल हड़पए चाहैत छल मुदा अन्ततः नुरेन रिक्साबला अपन मोबाइल बचाबएमे सफल भऽ गेल । नुरेनक पत्ता, नहि भट्ठीबलाकँे छल आ नहि दोसर दारु पिबए बलाकेँ । हमसभ चुकि गेलहुँ ।
‘यदि अहाँ ओहि भट्ठीमे नहि रुकल रहितहुँ तऽ हमसभ एकरा पकडि़ सकैत छलहुँ’, दिकपाल भाई तमसाइत बजलाह ।
‘हमरा उपर नहि तमसाउ । अपनहुँ तऽ ओहिसमय किछु नहि कहलहुँ । आब अपनहिँ बताउ हम की करु ?’
‘ओकरासँ बात करु, सही ढंगसँ दऽ दैत अछि तऽ ठीक नहि तऽ हम एसपीसँ बात करैत छी ।’
हम नम्बर मिलेलहुँ ।
‘हेल्लो…कँे…? उम्हरसँ आवाज आएल ।
‘हम छी नुरेन जेकर मोबाइल अहाँक हातमे अछि’, हम व्यंग्यमे कहलहुँ ।
‘अहाँसभ तऽ पुलिसमे जाएबला छलियै ?’
ओहीठाम छलहुँ । मुदा हम अनुभव कएलहुँ एहिबीच ओकर आवाजमे थरथराहट किछु कम भेल आ ओकर स्थानपर मस्ती लऽ लेने छल ।
‘गल्ती भऽ गेल नुरेन भाई हमरा अहाँक बीचमे पुलिस कतएसँ
आएत ? अपने हमर मोबाइल फिर्ता कऽ दिअ ।’
‘किए मालिक ? हमरा तऽ बाटमे भेटल अल्लाहकेँ कृपासँ ।’
‘चाटि किए रहल छी भाई ? अपने कतए रहैत छी बता दिअ ?’
‘किए बताउ ?’
‘हम अपनेसँ भेटए अबैत छी, एहीद्वारे ।’
‘तऽ बता दैत छी ?’
‘कृपा करु भाई एहि बातकेँ बुझबाक लेल दू तीन घण्टासँ हमसभ कतेक परेशान छी ।’
‘थानेदार साहबकेँ तऽ नहि लाएब ने ?’
‘नहि नुरेन भाई, अपने बेकारमे शंका करैत छी । हमरा तऽ समान भेटि जाए मात्र हम पुलिसकेँ चक्करमे किए पड़ब ?’
‘पुलचौक देखने छियैक ?’
‘हँ ।’
‘ओतएसँ कठपुल्ला जाएबला बाटमे एकटा बड़का गाछ छैक ओहिठामसँ दहिना मुडि़ जाएब आ ककरोसँ पुछि लेब नुरेन भाईकँे घर ?’
‘ठीक छै नुरेन भाई, हमसभ अबैत छी ।’
‘एखन नहि, एक–दू घण्टाक बाद आउ, एखन तऽ हम सवारी लऽ कऽ जा रहल छी ।’
हम दिकपाल भाई दिस देखलहुँ । ओ एखन शान्त लागि रहल छलथि, मुदा हुनक आँखि लाल छल । यदि नुरेन अपन पत्ता सही बतौने अछि तऽ कथा समाप्त होबएमे आधासँ एक घण्टा लागि सकैत अछि । तखन कहाँ पत्ता छल, सही कथाक प्रारम्भ घण्टाक बाद होबएबला अछि ।
हम नुरेन रिक्साबलाक विषयमे सोचलहुँ । केहन हएत ओ ? ओकर केस ओहिना उजरल हएत, शायद खिचड़ी, कनी कारी, कनी उज्जर । चेहरापर मंगोलीयन दाढ़ी हएत । आँखि छोट वा बड़का, आँखिमे थाल वा निचा कारी झुर्री । पूरा शरीरपर समयक अनगिन्ती निशान, शरीरपर कोनो मैल टि–सर्ट वा गन्जी, निचा लुंगी वा पइजामा । पयरमे पुरान हवाई वा टायरक चप्पल । तऽ शायद किछु एहने हएत हमर नुरेन भाईयक चेहरा ।
मुदा एखन नुरेन भाई दारु पिने छथि । हुनक एहि अवस्थामे अपने एकटा दृश्यक कल्पना करु जे नुरेन भाई अपन रिक्सा पर बैसि कऽ जा रहल छथि, मोबाइलक घण्टी बजैत अछि । रिक्सापर बैसल व्यक्ति हड़बड़ा कऽ अपन मोबाइल खोजैत अछि, नहि भेटैत अछि । हमर नुरेन भाई आसानसँ रिक्सा रोकैत छथि आ मोबाइल निकालैत छथि आ बजैत छथि, ‘कहुँ श्रीमान ?’
अगल–बगलसँ जाइत अबैत लोक हुनका आश्चर्यजनक रुपसँ देखि रहल अछि । मानि लिअ अपने हुनक रिक्सापर बैसल होइ आ नुरेन भाईकँे विषयमे की सोचबै ? शायद अपनेकेँ अपन आँखिपर विश्वास नहि हएत । वा शायद अपने हुनका चोर उचक्का बुझि लेब वा रिक्सा बदलि लेब वा यदि अपने हमरा जकाँ खूब सिनेमा देखैत होइ वा जासुसी उपन्यास पढैÞत होइ तऽ कोनो जासुस वा बड़का घरक सिद्धान्तवादी नायक बुझि सकैत छी ।
चक्कर छोडू, मानि लिअ हमरासभ लग मोटरसाइकिल नहि होइत आ हमसभ रिक्सापर बैसि कऽ टेलिफोन मिलबैत रहितहुँ तखन ? ओ शायद हमरा दिस मुडि़ कऽ देखितथि आ जखन हुनका पत्ता चलैत जे ई हमही सभछी जिनका ओ घण्टोसँ नाँच नचा रहल छथि तऽ नुरेन भाई कि करितथि ? कि हुनका हमरा सभपर हँस्सी अबैत वा फेर …. आ फेर हमर एंग्री मैन आर्टिस्ट दिकपाल भाई कि करितथि ?
हम पुछिये लेलहुँ ।
‘गर्दन मरोरि दैतहुँ ओकर’, दिकपाल भाई फुँफकारति जबाब देलन्हि ।
आगा हम चुप्पे रहब बुधियारी बुझलहुँ ।
घण्टाभरिक बाद हमसभ पुलचौकपर कठपुल्ला जाएबला बाटमे छलहुँ आ एकटा मौलबीसन देखाएबला व्यक्तिसँ नुरेन भाई रिक्साबलाक घर पत्ता पुछि रहल छलहुँ । मौलबी हमरासभकेँ घृणासँ देखलन्हि आ गल्लीकेँ अन्तिममे बनल फुसक घरदिस इशारा कएलन्हि । मौलबीकेँ घृणा जाएज छल । रमजानक महिना चलि रहल छल आ हमसभ एकटा एहन मुसलमानक घर पत्ता पुछि रहल छलहुँ ओ दारु पीबैत अछि ।
किछुए क्षणमे दिकपाल भाई ओकर गेट खटखटा रहल छलथि । बहुत देरकबाद एक असमय बुढ़ देखाएबला व्यक्ति गेट खोललन्हि आ अधखुल्ले केबारक बीचसँ माथ निकालि कऽ पुछलन्हि, ‘कहँु मालिक ?’
‘नुरेन तोही छीही ?’ दिकपाल भाई पूरा केबार खोलैत आदेश स्वरमे बजलथि ।
‘हँ, कहल जाउ ।’
हम ओ शरीरकेँ मिलान फोनपर हुनकासँ भेल बातचितसँ कएलहुँ मुदा गड़बड़ा गेल । हुनक नशा पूरे तरह उतरि गेल छल आ अप्रत्याशित रुपसँ दयनिय लागि रहल रहथि, घरक नामपर एकटा रुम छल, जेकर आधा हिस्सा पाछुक दिस खुल्ले देखा रहल छल । जाहिमे सँ एकटा धुवाँ–धुवाँसन इजोत आबि रहल छल । रुममे एकटा कोणापर पटिया राखल छल । दू–तिनटा मैल गदला राखल छल । एकदिस देबालपर कारी चुट्टीकेँ लम्बा कतार देखा रहल छल आ बाँसक टाटपर ठाम–ठाम मकरा अपन जाल फैलौने छल । कीरा मकड़ा तऽ गरीबक घरमे ठेकाने बनौने रहति अछि, हम सोचलहुँ ।
फुसक घरपर बेकार भेल टायर फेकाएल छल । हम फेरसँ नुरेन दिस देखलहुँ । कपड़ाक नाम पर ओकरा शरीरपर लुंगी छल, पत्ता नहि कहिआकँे धोवाएल छल । लम्बा शरीर मुदा हुनक पूरे शरीरपर हड्डी निकलल छल । गलामे एकटा कारी रंगक बद्धी छल । नुरेनक आगा दिकपाल भाई एकदम दिनक आगा, दिनानाथ लागि रहल छलथि ।
‘जी मालिक’, कहैत ओ कनी कतियाएल ।
‘मोबाइल कतए छौ ?’ दिकपाल भाई दाँत पिसैत फुफकार छोड़लन्हि ।
‘मालिक हमरा तऽ बाटमे भेटल, हम तऽ हल्लो कएलहुँ अपनेकँे मुदा अपने पाछु नहि तकलहुँ ।’
‘कहाँ छौक मोबाइल ? एखने दऽ रहल छी मालिक अपने भीतर तऽ आउ ।’
शायद ओ हमरासभकेँ बैसि कऽ तामस कम करए चाहि रहल होइथ वा शायद अपन पक्ष राखए चाहि रहल होइथ ।
‘ए हरामी हम तोरा ओहिठाम भोज खाए नहि आएल छियौ, सीधे मोबाइल दऽ देँ….’, दिकपाल भाई चिचिएला ।
‘दऽ दैत छी मालिक । गाढि़ किए पढि़ रहल छी हम तऽ स्वयं…’
तखने भीतरसँ एकटा बच्चा कुदैत आएल, मोबाइल ओकर हातमे छल । ओ नुरेनसँ पुछलक ‘ई की है अब्बु ?’
नुरेन बच्चाकेँ कोनो जबाब दैत ओहिसँ पहिने दिकपाल भाई मोबाइलपर झपट्टा मारलन्हि । बच्चा अकचका कऽ आ पटियापर टकरा कऽ ओंघरा गेल । मोबाइल दूर कोनो पेटीसँ टकरा गेल । दिकपाल भाई फूर्तिसँ मोबाइल उठौलन्हि आ मोटरसाइकिल दिस बढ़लाह । लगपासक लोक हमरासभकँे सन्देहक दृष्टिसँ देखि रहल छल आ नहि जानि कि–कि बात कऽ रहल छल । बच्चा जोड़–जोड़सँ कानि रहल छल । मोटरसाइकिल स्टार्ट होइतए ओहिसँ पहिने नुरेन रिक्साबलाक आवाज आएल, ‘जाउ–जाउ मालिक देखि लेलहुँ अपनेकेँ । एतबो नहि, हमरा बच्चाक लेल एकटा खेलौनो लेने एबितहुँ । आब तऽ मोबाइल भेटि गेल अछि ने …आब तऽ कऽ लिअ संसार मुट्ठीमे । हम एहि संसारमे थोरहे छी मालिक । क्रम टुटल…. ‘हँे बौवा सुल्तान, हँे बौवा सुल्तान शायद नुरेनक बच्चाकेँ कतहुँ चोट लागि गेल छलन्हि जेकरा दिस हुनक ध्यान गेल । ‘अहाँसभ शैतान छी….राक्षस जकाँ छी’, नुरेन फेरसँ चिचिएलाह मुदा एखनभरि मोटरसाइकिल स्टार्ट भऽ गेल छल । मोटरसाइकिल आगा बढ़ए ओहिसँ पहिने एकटा पत्थर हमरा पयरसँ टकराएल । हम पाछु पलटि कऽ देखलहुँ, एकटा उत्तेजित भीड़ देखाइ पड़ल । नुरेन एखनो चिचिया रहल छल । किछुए क्षणमे हुनक आवाज सुनाइ देब बन्द भऽ गेल । रेलवे स्टेशन लग पहुँच कऽ दिकपाल भाई मोटरसाइकिल रोकलन्हि आ मोबाइल जाँचए लगलथि, मोबाइलक उपरका भाग थुराएल छल आ ओ काज नहि कऽ रहल छल । दिकपाल भाईकेँ आँखिमे एकटा हिंसक चमक आएल, ओ जेबमेसँ सिगरेटक प्याकेट निकाललन्हि आ एकटा सिगरेट जरा कऽ तीन–चारि कस लेलाक बाद सिगरेटकेँ जुत्तासँ पिच देलन्हि ।
‘चलु प्रहरी चौकी चलैत छी’, दिकपाल भाई कहलन्हि ।
‘आब चौकी जा कऽ की करब ? हबल्दार साहबकेँ व्यवहार बिसरि गेल छी अपने ?
नहि, स्मरण अछि एहिद्वारे कहि रहल छी ।’
‘एहि हरामजादा नुरेनकँे तऽ हम….हम एकरा नामपर किटानी जाहिरी देब ।’
‘अपने कोन घमण्डमे छी भाईजी, चौकीमे अपनेकँे दालि नहि गलएबला अछि । अपनेकँे मोबाइल हेरा गेल तऽ ओ इमान्दारीसँ घूरा देलक । ई खराब भऽ गेल तऽ ई ओकर नादानी मात्र छल । फेर चौकीमे सई आ हबल्दारक व्यवहार देखने नहि छियै की ? सभ ओहने हएत ।’
‘दुनूकँे एहन नहि तेहन, हम तऽ सालाकेँ देखलहुँ मुदा अहाँ किछु नहि देखलहुँ ।’
‘कि नहि देखलहुँ ?’
‘सई साहबकँे जनउ, हबल्दार ठोप कएने छल आ ओकरा कक्षमे भगवानक फोटोसभ छल ।
हम पसिना–पसिना भऽ गेलहुँ, फेर किछु नहि हम पुछलहुँ ।
‘शहरकेँ एसपी हमरासँग बैसि कऽ दारु पीबैत अछि, हम सभकेँ परेशान करबै आ ओ मुसलमान नुरेनकँे तऽ हम….।’
आगाकेँ घटनामे हमर भूमिका कि हएत एहिकेँ लऽ कऽ हम परेशान भऽ गेल छी । कोनो निकास फुरा नहि रहल अछि । ईम्हर मोटरसाईकिल पर बैसबाक दिकपाल भाईकेँ आदेश अनुसार बैसि रहलहुँ ।