सुजीतक मैथिली भाषामे १६ टा पुस्तक प्रकाशित अछि । पत्रकारितासँ जुड़ल सुजीत मैथिली साहित्यक हरेक विधामे कलम चलबितो कथा हिनक प्रिय विधा अछि । मोडेल खबर अनलाइनक सम्पादक सेहो छथि ।
सुजीत कुमार झा
उपन्यास बहुत दिनसँ अधुरा पड़ल छल । कतेकोबेर ओकरा प्रारम्भ कएलहुँ आ समाप्तो कएलहुँ मुदा ओ हमर पसिनक नहि बनि पाबि रहल छल । एकटा आओर गल्ती हमरासँ ई भेल, उपन्यास पूरा करएसँ पूर्व ओकरा विषयमे कतहुँ लिख देने छलहुँ । पाठकक उत्सुक्तापूर्ण पत्र हमरा नाकमे दम कऽ देने छल । हमर इच्छा छल, ओकरा जल्दि समाप्त करी । मुदा ओ हनुमानजीक नाड़रि जकाँ बढि़ए रहल छल । ओकरा समाप्त नहि होबएकेँ कारण ई छल, एकरा ओहे बुझि सकैत अछि, जे गृहस्थीकेँ दलदलमे फसल अछि ।
जखन हम देखलहुँ घररुपी चिडि़या घरमे पुस्तक पूरा होएब सम्भव नहि अछि, दू हप्ताक कार्यक्रम बना विराटनगर बिदा भऽ गेलहुँ । विराटनगरक धर्मशालामे रुकि आ झटपट लेखन कार्यमे जुटि गेलहुँ ।
धर्मशाला बहुत बड़का नहि छल, फेर महल्लाबला एरियामे भेलाक कारण लगपासमे कतेको गृहस्थक घर छल । हल्ला एतहुँ कम नहि छल, मुदा हमर मोन उबिआइत नहि छल ।
एक तऽ मौसम बढि़या छल, दोसर हमर स्वास्थ्य सेहो । धीयापुतासभ बाहर बहुत हल्ला करैत छल, मुदा हमरा की ? हमरासँ तऽ किछु मंगैत नहि छल ?
मुदा एकटा समस्या बहुत भारी छल । एकटा सफाई करएबाली महिला, हरेक समय सभसँ झगड़ा करैत रहैत छल । ओकर महाभारत तऽ हमर उपन्यासोसँ बड़का छल, कोनो ने कोनो काण्ड चलिते रहैत छल । जतेकदेर ओ गल्लीमे नहि रहैत छल, हमर समय सुखसँ कटैत छल । मुदा कहल जाइत छैक, सुखक समय बहुत जल्दि बिति जाइत अछि ।
हम दू चारि पृष्ठ लिखए पाबि रहल छलहुँ की फेरसँ उएह हल्ला । हम दुःखित भऽ जाइत छलहुँ । भगवानकेँ गोहराबए लागैत छलहुँ, ‘हे भगवान मुक्ति दिअ !’
धर्मशाला अएला हमरा ५÷६ दिन बिति गेल छल, एतबेदिन हमरा आओर रुकबाक छल । मुदा एहि स्थितिमे हमर काजक उदेश्य पूरा हएत एकर आशा कमे छल ।
छठम दिनक बात अछि, बर्षा भोरेसँ भऽ रहल छल । बेरियामे गेट पर कुर्सी लगा कऽ हम केरा खा रहल छलहुँ, बर्षाक आनन्द लऽ रहल छलहुँ, तखने हमरा माथ पर लऽका लऽकल । मुदा ई लऽका अकाशमेसँ नहि धर्तीसँ छल । कानक पर्दा फाइर देबएबला आबाज आएल, ‘पण्डितजी अहाँकेँ देखाई नहि दैत अछि ? हम एखने झारु लगा कऽ गेलहुँ अछि आ अहाँ गन्दा कऽ रहल छी ।’
हमरा अपन मुर्खतापर ध्यान आएल । सहीमे हम केरा खाकऽ छिलका बाहर फेकि देने छलहुँ ।
हम पहिनहिसँ ओ काज करएबालीसँ डेराइत छलहुँ । उठि कऽ गेटक आगामे रहल छिलका उठेलहुँ आ बजलहुँ, ‘बहिन माफ करब । हमरा बुझल नहि छल हम बाहरकेँ छी, अहाँ बढि़या कएलहुँ जे बुझा देलहुँ…पुनः एहन गल्ती नहि करब ।’
हमरा बुझाइत छल, ओ अपन स्वभावक अनुसार हमरा बढि़या जकाँ क्लास लेत, मुदा नहि जानि हमर कनिटा शब्द ओकर हृदय पर, असर कएलक फेरसँ किछु नहि बाजल ।
किछुए देरक बाद ओ बाजल, ‘पण्डितजी, अहाँ छोडि़ दिऔ, हाथ नहि खराब करु …. हम उठा लैत छी ।’
हम हटि गेलहुँ आ ओ झारुसँ साफ करए लागल । ओकर आँखि झुकल छल आ ओकर चेहरापर लाजक चिन्ह देखा रहल छल ।
दोसरदिन जखन आएल तऽ सभसँ पहिने हमरे बरण्डा झारए लागल, जेना ओ बितल ६ दिनसँ किछु नहि कएने छल । ओकर एहि विशेष कृपाक कारण सोचिए रहल छलहुँ, ओ गेट पर आबि कऽ कहए लागल, ‘पण्डितजी आओर कोनो गन्दा हुए तऽ बाहर फेक दिअ, हम उठाकऽ लऽ जाइत छी ।’
‘नहि बहिन, आओर नहि अछि ….,’ ई कहि कऽ हम लिखएमे लागि गेलहुँ । राइटिङ्ग प्याडक पृष्ठ फारिकऽ जखन हम राखए लगलहुँ तऽ अनायासे हमर दृष्टी गेट पर गेल । हमरा लागल छल, ओ चलि गेल हएत मुदा ओ एखनो गेटक बगलमे ठाढ़ छल आ बीच–बीचमे माथ आगा कऽ कऽ हमरा प्याड पर लिखल टेढ़मेढ़ अक्षरकेँ देखि रहल छल ।
हम सोचलहुँ, शायद बख्शीशक लेल ठाढ़ अछि । ओ बर्षामे भीज रहल छल । हम जेबमे हाथ घुसिआ कऽ, खुद्रा खोजए लगलहुँ । हमर हाथ बाहर निकलएसँ पहिने ओ ओहि प्रकारे हमर प्याड पर नजरि जमौने बाजल, ‘पण्डितजी ई की लिखैत रहैत छी ?’
‘एहिना किछु लिखैत रहैत छी….,’कहैत हम २० टका ओकरा दिस बढ़ा देलहुँ आ कहलहुँ, ‘….लऽ लिअ ।’
‘रहए दिऔ पण्डितजी, हम नहि लेब ।’
हम पुछलहुँ, ‘किए ?’ हमरा आब ओकरा पर तामस आबए लागल । सोचलहुँ, २० टका ओकरा मजदुरी कम बुझा रहल अछि ।
तखने कनी बिहुँसि कऽ बाजल, ‘काल्हि अहाँ हमरा बहिन कहलहुँ, एहि द्वारे…. ।’ ओकर चेहरासँ एना लगैत छल, हम ओकरा बहुत धन दऽ देलीऐ अछि । आ ओ हमर एहसानक निचा दबल जा रहल अछि । हम चुपचाप ओकरा दिस तकैत रहलहुँ ।
फुन्नी पडि़ रहल छल । भारी बर्षा दिस ओ फुन्नी बढ़ए लागल छल । टोलक सभ लोक अपन–अपन गेट बन्द कऽ लेने छल । मुदा ओ एखनोधरि बर्षामे ठाढ़ छल । हम विचार कएलहुँ, हमर एकटा साधारण शब्द बहिन एकरा एतेक बढि़या लागल । हम तऽ कनी मनी कवि हृदय रखैत छी । मुदा हमरा स्थानपर यदि कोनो निर्दयी हृदय सेहो होइत तऽ जाहि ढङ्गसँ ओ उपयुक्त वाक्य बाजल छल, सुनि कऽ मोम भऽ जाइत ।
ओ प्रेमक कतेक भुकल अछि आ एकटा छोट शब्दकँे कतेक सम्हारि कऽ रखैत अछि । हम सोचलहुँ, सहीमे ई घृणाक हावामे पलल हएत । बेचारी पूरेदिन लोकक घर बहारैत अछि आ गन्दा लदने रहैत अछि आ बदलामे पबैत अछि –घृणा, तिरस्कार आ गारि बात ।
सायद एहिद्वारे ई घृणा करैत अछि, लडैÞत रहैत अछि सभसँ । मुदा एतेक भेलाक बादो एकर हृदय कतेक सुन्दर आ मोलायम अछि । मनेमन हम कहलहुँ, तोँ सहीमे हमर बहिन होइतेँ !
ओकर कपड़ासँ पानि निचा बहए लागल छल, हमर हृदयक आँखि ओकरादिस ताकि रहल छल, ओ भीज गेल छल । ई देखि कऽ हम कलम आ पैड दोसरदिस रखैत आबाजमे कनीक मधुरता लबैत कहलहुँ, ‘अहाँ तऽ भीज रहल छी, भीतर चलि आउ ।’
ओ नजरिभरि कऽ एकबेर हमरादिस तकलक आ फेर अपना दिस । नहि ओ भीतर आएल आ नहि किछु कहलक ।
हम चाहैत छलहुँ, बर्षा कम भेलाक बाद ओ चलि जाए । मुदा ई काज हमरा बसमे नहि छल । फेर हम ओकरा कहलहुँ, ‘अच्छा तऽ हमर ई छाता, लऽ जाउ ।’
एहिबेर ओकर मुँह खुजल । कहए लागल, ‘पण्डितजी, हमसभ तऽ एहिना भीजैत रहैत छी । हम एहिना चलि जाएब ।’
हम जिद्द कऽ कऽ कहलहुँ, ‘कनिको देरक लेल भीतर आबि कऽ बैसि जाउ । पानि पड़ब रुकि जाइत तऽ चलि जाएब ।’
सायद ओकरा भीतर आबएकेँ इच्छा भेल । मुदा भीतर ग्याँस, कप आ प्लेट दू चारिटा बर्तन ओहिना इम्हर ओम्हर राखल छल । ओ देखि कऽ बाजल, ‘एतए तऽ अपने रोटी बनवैत छी ?’
हम उत्तर देलहुँ, ‘तऽ कि भेलै, ई बर्तन अहीँक भाईकेँ अछि ।’
जहीना हमर वाक्य सुनलक, ओकर कनकन पुल्कित भऽ उठल । ओ एकबेर इम्हर ओम्हर देखलक, किओ देखि तऽ नहि रहल अछि, फेर ओ झारुकेँ बाहर देबालक संग राखि कऽ भीतर आबए लागल । मुदा गेटे लग आबि कऽ ठाढ़ भऽ गेल, मात्र बर्षासँ बचावएकँे लेल । ओ काँपि रहल छल । हम चाहैत छलहुँ, ओ आओर भीतर आबए । ओछयानपर नहि तऽ कमसे कम जमीनपर राखल कारपेट पर बैसए । हम ओकरा बाध्य नहि कऽ सकैत छी । ओ ओहिना ठाढ़ कपैत बाजल, ‘पण्डितजी …… ’
हम बीचेमे टोकलहुँ, ‘भाइकेँ लोक पण्डितजी नहि कहैत छैक, बहिन ।’
ओ पहिनेसँ किछु लजाएल । फेर बाजल, ‘भैया अपने कतए रहैत छीयैक ?’
‘वीरगंज’, हम उत्तर देलहुँ आ फेर ओकरासँ पुछलहुँ, ‘अहाँक नाम कि अछि ?’
बाजल, ‘बुलबुल ।’
फेर कहए लागल, ‘अपने कतेक दिन रुकबैक ?’
‘५–६ दिन आओर रुकब, मुदा एहि धर्मशालासँ सायद काल्हिए चलि जाएब । एहिठाम बहुत हल्ला होइत छैक ।’
ओ क्षणभरि चुप रहल । नहि जानि कि सोचैत रहल । फेर कहए लागल, ‘ई हरेक समय अहाँ कि लिखैत रहैत छियै ?’
‘किताब लिखैत छी ।’
‘किताबक अक्षर तऽ दोसर तरहक होइत अछि ।’
‘इहो ओहिना भऽ जाएत, मशीनमे पड़लाक बाद ।’
‘हँ’, आश्चर्यसँ हमरादिस तकैत बाजल ।
‘अपनेक ओहिठाम केँ–केँ अछि ?’
‘कनियाँ, माँ, बाबूजी आ एकटा बेटी अछि ।’
बर्षा किछु कम भेल देखि कऽ ओ बाजल, ‘भाइजी हम चलु तऽ ? एखन बहुत काज अछि ।’ ओ देबालमे ठाढ़ झारु उठा कऽ चलि गेल । एकरबाद हम जतेक दिन ओतए रहलहुँ, बहुत शान्ति आ आरामसँ ।
ओहे बुलबुल जे पहिने तुफानमेल बनल रहैत छल, आब सभकेँ चुपचाप करबैत रहैत अछि । सभकेँ आँगन बढि़या जकाँ बहारैत रहैत अछि । ककरो बच्चा इम्हर ओम्हर गन्दा फेकि दैत अछि, तैयो किछु नहि बजैत अछि । कोनो लड़काकेँ जोड़सँ चिचियाइत देखैत अछि तऽ सम्झबैत अछि, ‘हल्ला नहि करु उम्हर पण्डितजी किछु लिख रहल छथि ।’
सभसँ पहिने ओ हमर आँगनकँे सफाई करैत अछि आ जाइत समय, हमरा आगुमे आबि कऽ कनी मनी बातचित कऽ लैत अछि । ओ एकाएक बहुत शान्त आ बुद्धियार भऽ गेल अछि ।
ओना हम ओहि घरमे ५÷६ दिन मात्र रहलहुँ । उपन्यासक काज समाप्त भऽ गेल । जाहि दिन हमरा जएबाक छल ओहिसँ एकदिन पूर्व नित्य दिन जकाँ हमरा लग आएल आ बाजल, ‘काल्हि चलि जाएब भाइजी ?’
‘हँ, काल्हि चलि जाएब ।’ फेर हम कहलहुँ, बुलबुल ‘कनी इम्हर आउ…. ।’
ओ बीना हिचकिचाहटकँे रुममे आबि गेल । हम स्नेह भड़ल हाथसँ ओकर माथपर छुबैत ओकरा हाथमे दू सय टका दऽ देलहुँ ।
ओ लौटावए चाहैत छल, मुदा हमरा मुँहसँ ई सुनि कऽ जे अहाँकेँ नहि, हम अपना बहिनकेँ दऽ रहल छी ….., प्रशन्नतासँ लऽ लेलक ।
दोसरदिन भोर ८ बजे सामान बान्हि कऽ हम रिक्सा पर चढि़ गेलहुँ । धर्मशालाकँे मैनेजरसँ बिदा लैत रिक्साबलाकेँ चलएकेँ इशारा कइए रहल छलहुँ, तखने अचानक हमर नजरि दूरसँ आबि रहल बुलबुल पर पड़ल ।
ओ माथपर किछु उठा कऽ रखने छल । ओकर श्वास तेज गतिमे उपर निचा भऽ रहल छल । ओ करीब–करीब दौडैÞत हमरादिस बढि़ रहल छल । रिक्साबलाकेँ पीठ दबा कऽ हम प्रार्थना करैत, रोकए कहलहुँ । रिक्साबला किछु देरक लेल रुकि गेल ।
हम रिक्सा परसँ उतरि कऽ ओकरा लग पहुँचलहुँ । माथपरसँ चँगेरा निचामे रखैत लजाइत बाजल, ‘भाइजी किछु छल अपनेक लेल, तेँ एकरा लऽ कऽ एलहुँ अछि ।’
हम पुछलहुँ, ‘कि अछि बुलबुल ?’
ओ लजाइत बाजल, ‘भाइजी कनीक केरा अछि ….. आ फेर किछु क्षण रुकैत बाजल, भगवान कसम एकरा हम छुवो नहि कएलहुँ अछि । हमर पड़ोसी काटि कऽ चँगेरामे धऽ देलक अछि । ओना केरा हमरे गाछक अछि ।’
ओ हमरा चेहरा दिस देखए लागल, हम ओकर प्रार्थना स्वीकार करु वा नहि । गदगद भऽ कऽ हम बजलहुँ, ‘बुलबुल अहाँ देब तऽ किए नहि लेब । बल्कि अहाँ अपन भौजीक लेल नहि किछु अनितहँु तऽ हमरा तामस होइत ।’
ओ माथसँ लऽ कऽ पयरधरि प्रेममे डुबि गेल । जे किछु बाजए चाहैत छल, ओ प्रशन्नतासँ नहि बाजि सकल । चँगेरा पुनः माथपर राखि कऽ ओ हमरासँग रिक्साधरि आबए लागल, मुदा हम ओकरा चँगेरा नहि उठावए देलहुँ, स्वयं उठा लेलहुँ । ओकरा आशीर्वाद दैत हम कहलहुँ, ‘बहिन फेर भेटब ।’
फेर रिक्सा पर आबि कऽ बैसि रहलहुँ । रिक्सा चलि पड़ल ।
किएने किए आँखि डबडबा गेल । डबडबाएले आँखिसँ बुलबुल बहिनदिस देखलिऐक । बहिन आँचरक कोरसँ अपन आँखि पोछि रहल छल ।