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मैथिली बालकथा – औंठी





 सुजीत कुमार झा
माँकेँ औंठी हेरा गेल छल । सोनाक औंठी ! आँटा गुथैत–गुथैत ओ ओकरा उतारिकऽ बर्तन राखऽ बला पटहापर राखि देने छलीह
। फेर भोजन बनाबऽके धरफरीमे पहिरब बिसैरि गेल रहथि ।
भोरक समय सभकेँ जल्दी छल । दुनू बच्चा सृष्टि आ गोनू स्कूल जा रहल छल आ पापा अफिस । तँए पुरे घरमे हलचल मचल छल ।
सृष्टिकेँ मौजा नहि भेटि रहल छल तऽ माँकेँ अवाज लगा रहल छल । पापाकेँ सेभिङ्ग व्लेड नहि भेटि रहल छल । माँ दौड़–दौड़कऽ भानस घरसँ अबैथि । आ सभकेँ काज निपटाकऽ फेर भानस घरमे चलि जाइत छलीह ।
काम काजमे पुरे दिन बीत गेल । बर्तन माजऽबाली काज कऽ कऽ चलि गेल । सृष्टि आ गोनू स्कूल जा कऽ चलि आएल । पापा सेहो अफिससँ आबि कपड़ा बदैलिकऽ टिभी देखऽ बैसि रहला ।
माँ सभक लेल चाह जलपान बनाकऽ अनलीह तखने अचानक पापा पुछला,‘ रीना, अहाँक औंठी कतऽ अछि ?’ माँ चौककऽ अपन आंगुरकेँ देखैत छथि । हँ , औंठी तऽ सहीमे नहि छल ।
फेर अचानक ध्यान अएलैन्हि, आँटा गुथैत काल बर्तन राखऽबला पटहापर राखि देने छलीह । ओ दौड़Þकऽ भानस घरमे गेलीह मुदा औंठी ओतए नहि छल ।
आब तऽ माँके चेहरा उडि़ गेल छल । ओ पुरे भानस घर छानि मारलीह मुदा औंठी कतहँु नहि भेटल । भानस घरेमे किए, बेडरुम आ ड्राइंग रुम सेहो ताकल गेल मुदा औंठीक कोनो अतापता नहि छल । माँकेँ उदास चेहरा देखि पापा बिहुँसिकऽ बजला, ‘एहिमे एतेक परेशान होएबाक आवश्यकता नइँ छैक ? आखिर औंठीए तऽ छल, कोनो हिराकेँ हार थोरहे छल !’
‘ई तऽ ठीक अछि, मुदा घरसँ कतऽ गेल ?’ माँ एखनो चिन्तित छलीह ।
‘हँ बस ! इएह तऽ चिन्ताक बात अछि, अहाँकेँ स्मरण अछि अहाँ औंठी उतारिकऽ भानस घरमे रखलहुँ से ?’
‘हँ हँ, हमरा बढि़याँ जकाँ स्मरण अछि, हम इएह पटहापर आटा गुथैत काल अपन आंैठीकेँ उतारिकऽ रखने छलहुँ ।’
‘पापा, कतहँु अपना घरमे बर्तन माजऽबाली तऽ औंठी गाएब नहि कऽ देलक ?’ गोनू अपन शंका व्यक्त कएलक ।
‘नहि, गोनू बेटा ! हमरा सभकेँ दोसरपर एहि तरहें शक नहि करवाक चाही । गरीब होबऽकेँ मतलव ई नहि अछि जे ओ चोर अछि,’ पापा गोनूकेँ सम्झओलैन्हि ।
‘हँ, बबिता माए एना नहिकऽ सकैत छथि ओ वितल १२ वर्षसँ काजकऽ रहल छथि हमरा हुनकासँ कहियो शिकायत नहि रहल । यदि हुनका जानकारी भऽ जाए जे हम सभ हुनकापर शक करैत छी तऽ हुनका बहुत खराब लागत । भऽ सकैत अछि ओ काजो छोडि़कऽ चलि जाथि । हमरा सभकेँ हुनक स्वभिमानकेँ चोट पहुँचएबाक कोनो अधिकार नहि अछि गोनू बेटा,’ माँ सेहो पापाक बातक समर्थन कएलीह ।
‘सरी माँ हमरा एना नहि सोचबाक चाही,’ गोनू पश्चाताप भरल स्वरमे बाजल ।
‘ठीक छैक कोनो बात नहि,’ पापा गोनूके पिठ थपथपओलैन्हि ।
‘मुदा औंठी गेल कतऽ ?’ एखनधरि चुपचाप ठाढ़ रहल सृष्टि बाजल ।
‘हँ, इएह तऽ बुझबाक अछि, ’ माँ बजलीह ।
औंठीक खोज कतेको दिन होइत रहल मुदा ओ नहि भेटल । एक दिन माँ बजलीह, ‘लगैत अछि कोनो मुस मरि गेल अछि ।’
गोनू बाजल, ‘हँ माँ किछु गन्हा रहल अछि ! लगैत अछि मुस एहि पटहाक नीचा जा कऽ मरल अछि ।’
पटहापर दाइल, चाउर, चिकस, चिनी, चाहपत्ती, तेल, मसाला सभ राखल छल । गोनू आ माँ ओकरा एक–एक कऽ हटओलक फेर पटहाकेँ ठेलकऽ देखलक तऽ दंग रहि गेलीह ओतऽ तऽ मुस बड़का बिल बनओने छल । बिलक लगपास नहि जानि कतेको खाएबला चीजसभ कुतैरिकऽ रखने छल । मुस अपने बिल्लुरमे मरल छल ।
गोनू खुर्पीसँ बिल्लुरकेँ बड़का बनओलक तऽ ओकर नांगरि चमकल ओ चुट्टासँ ओकर नांगरि पकरिकऽ बाहर खिचलक, खटाक आवाजसँ आंैठी सेहो बाहर खसल,एकरा देखिकऽ गोनू आ माँ दुनू आश्चर्यमे छल ।
साँझमे अफिससँ घर अएलाक बाद पापाकेँ जखन पता चलल ओ हँसैत कहला, ‘अच्छा तऽ ई बात अछि ! औंठीमे आँटा लागल हएत ओकरे चक्करमे मुस ओकरा अपना बिल्लुरमे लऽ गेल हएत । ’
‘हँ–हँ, इएह भेल हएत पापा !’ सृष्टि ताली बजबैत बाजल ।
फेर घरमे सभ गोटे बहुत देरधरि ओहि हेराएल औंठीक विषयमे बात करैत रहल जे आब भेट गेल अछि ।