♦ धीरेन्द्र प्रेमर्षि
‘कैलए मोन छोट करै हइ ?’ मूह फुलाकऽ बैसल मुसहरबाकेँ भरोस दैत बाजलि थेथरी, ‘आब तँ जमीनोके कागज-पत्तर भेटिए गेलै ने !’
‘अरे जमीन तँ हम्मर छलै। ऊ आइ ने काल्हि हमरा भेटबै करितै। एहन अन्हेर थोड़े ने बितै हइ जे राधे मालिक हमर जमीन पचा लितै!’– एक-एक शब्दपर जोड़ दैत बाजि रहल छल मुसहरबा, ‘हुँह, ई कोन कबिलौती भेलै? … सौँसे जमीन-जाल पहिने भरना लगबा देलक। फेर एहन नाच नचेलक जे दुनिया जनै हइ। केहन-केहन फेरी लगौलाक बाद कहुना जा कऽ सबचीज आपस दिऔलक।’
‘सएह तँ कहै छियै हमहूँ’– थेथरी बाजलि, ‘आब कथीकेँ कुआथ ?’
‘केहन बात करै हइ थेथर ?’– आश्चर्यसँ अपन कनियाँक मूहदिस तकैत मुसहरबा गुम्हड़ल, ‘ओतेक दिन अनेरे जे दरभङ्गामे रिक्सा घिचबौलक, तकरो हम ओहिनत्ती बिसरि जइयै ? … ऊ तँ धनि कहौक जे कतऽ सँ सच्छात देवतानाहित परगट भऽ गेलै महीचन्द भैया ! नइ तँ आइ हम …..’ बाजैत-बाजैत मुसहरबाके गराबकौरजकाँ लागि गेलैक। थेथरी सेहो बितलाहा दिनसभकेँ मोन पाड़ि व्यथित भऽ गेलि– कोना दीन कऽकऽ अबिते ओकर दुर्दिन शुरू भऽ गेल रहैक! मुदा माझ जुआनीक ओहि चोट आ कचोटक टीस, जे मोनकेँ टहकाबऽ लागल रहैक, तकरा टरकाबैत थेथरी नहुएँ मुसहरबाक देहमे ढेसा मारैत बाजलि, ‘ताही लागी तँ कहै छियै– आब तँ सबकुछ फड़िच्छ भऽ गेलै ने! कोन दुःख आब?’
‘केहन बात करै हइ थेथर इहो ?’– आश्चर्य व्यक्त करैत बाजल मुसहरबा, ‘हमर तेरहो करम कऽकऽ राखि देलक आ कहै हइ जे …। … पहिने हक्कल डाइनजकाँ बुझौक जे गाछ हाँकिकऽ हमरा उरीबिरी लगा देलक। आ फेर बादमे महागुनी ओझा बनिकऽ तेहन ने फूक मारलक जे सब उड़नछू भऽ गेलै। अपने डानियोँ आ अपने धामियोँ। मुदा अइ डनियाही-धमियाही खेलमे हमर जिनगीक जे गञ्जन भेल से तँ गूड़क मारि धोकरिए जनै हइ ! … एतबा कऽकऽ ऊ बुढ़बा डागदर धीरेन्दर अपना तँ बुझू जय-जय करबा लेलकै, मुदा हमराआउरके की भेटलै ? कोइ नामो लेबैया हइ?’
मुसहरबाक बात सूनिकऽ थोड़े कालक लेल थेथरियो अतीतक तिताउँसमे लटपटा गेलि। मुदा फेर ओहि तीतकेँ मोनक मिठाससँ कतिअबैत बाजलि, ‘छिप्पामे जे परसल हइ से नइ देखै हइ आ कोन जुगमे जे पेटमे जुन्ना बान्हऽ पड़ल रहै, तकरा मोन पाड़ि अपनो जुन्नेनाहित ऐँठै हइ।’ एतबा कहि मूहँपर मारुकसन मुस्की परसैत थेथरी फेरसँ मुसहरबाक देहमे अपन देहक कोमल ढेस्सा मारैए लागल रहए कि बाहरसँ खखसैत कोनो बूढ़क आवाज अएलैक, ‘मुसहर! रे बौआ मुसहरू छेँ ?’
‘की बात हइ कक्का ?’ मुसहरक मूहसँ ‘कक्का’ शब्द सुनितहिँ थेथरी बूझि गेलि जे मलरा बुढ़बा अएलैए आ आब घण्टो बतिआइत रहतै। तेँ माथपर नूआ सरिअबैत ओ भन्साघरदिस टघरि गेलि। मुसहरबा सेहो ऊठिकऽ गमछासँ चौकीकेँ झाड़ैत भीतरेसँ कहलकैक, ‘आबह कक्का, एम्हरे आबह।’
‘रे बौआ! रे ठकाइ भाइ कोम्हर गेलौ?’– चौकीपर बैसैत पुछलकैक मल्लर।
‘धुर की कहियऽ कक्का! कुछो कहबै तँ कहतै जे कहैए। मुदा अइ उमेरमे आबिकऽ जे बाउ एना करै हइ, से ….. ’ बाजिते-बाजिते मुसहरबा ठमकि गेल। मुदा ओकर बात सूनिकऽ मल्लरक आँखि-भौँह सिकुड़ि गेलैक। मुसहरबाक गरमाएल मुद्राकेँ हियाबैत मल्लर पहिने अपन अन्देशाक बासनकेँ ठोकि-बजाकऽ जाँचि लेलक फेर किछु सम्हरिएकऽ पूछि बैसल, ‘ठकाइ भाइ एहन काज केलकै रौ? ….. हमरा बिसबास नइ होइए !’
‘तही बातसँ तँ हम परेशान छियै कक्का।’ मुसहरबा मोन घोर कएने बजैत गेल, ‘जुग-जमाना केहन आबि गेलै तकर कोनो खियाले नइ हइ! बुझऽ कि जे हमर पूरे खन्दानकेँ उरिबिरी लगा देलक, जे हमर माएकेँ तक खा गेल, तकरे पाछा फेरो …..।’
मल्लरकेँ आओर आश्चर्य भेलैक। तेँ ओही अन्दाजमे ओ पुछलकैक, ‘माने कि पहिनहीसँ ई बात छलै?’ … मुसहरबाकेँ अपनहिमे हराएल देखिकऽ मल्लर दुत्कार भरल अन्दाजमे बाजऽ लागल, ‘बाफ रे बाफ, घोर कलिजुग आबि गेलै! … ई पोता-पोतीकेँ खेलेनाइ छोड़िकऽ ठकाइ भाइकेँ ई की फुरेलै?’
‘सएह ने देखहक कक्का!’– मुसहरबा कहलकैक, ‘हमरा जे बेसी पित्त लहरत तँ फेर हम कुछ नइ देखबै, सोझे नालिस ठोकि देबै। … आखिर हमरो आउरकेँ कुछ चाही कि नइ?
‘न-न-न। ई नालिस-तालिसके फेरमे नइ पड़।’– समझाबैत बाजल मल्लर, ‘मुद्दा-मोकदमा, नालिस-तालिस आइतक ककरो भल केलकैए? रे ई तँ दूधारी तरुआरि छियै। कोम्हरो चलै, कटाइ हइ अपने समाङ। … समझा-बुझाकऽ कही। आखिरमे जनमदाता हउ ने रौ!’
‘देखह कक्का, ई जनमदाता-तनमदाताके बात तोँ हमरासँ नइ करह।’– एकाएक किछु उग्र होइत बाजल मुसहरबा– ‘ऊ हमराआउरके जनम देलक आ कि अपन रङ्ग-रभस केलक? हमराआउरकेँ जनम जे देने रहितै तँ ओकरा आ हमरामे एतेक अन्तर अबितै? ई सब ढकोसला हइ कक्का, तोँ नइ बुझबहक।’
‘ई की भसिआएलनाहित बात करै छेँ रे!’– मल्लर डपटैत बाजल, ‘बुझलियै जे बुढ़ारीमे आबिकऽ ठकाइ भाइकेँ मति कने भरस्ट भऽ गेलै। मुदा तोरासँ की बेसी सुख-सुविधामे रहै हइ?’
‘जा ऽऽऽ, ई की कहै छहक कक्का?’ मुसहरबाकेँ बुझबामे आबि गेलैक जे ओकर आ मल्लरक सोचक गाड़ी दू अलग-अलग दिशामे दरबर मारि रहल छैक। तेँ गप्पकेँ पटरीपर लएबाक अन्दाजमे बाजल, ‘हम अपना बाउदिया थोड़े ने एहन बात कहलियऽ गऽ!’
‘ऐँ?’– आश्चर्यसँ पुछलक मल्लर, ‘तखन तोहर दोसर बाप कतऽ सँ जनमि गेलौ रौ?
‘बाप नइ, जनमदाता हौ कक्का!’– मल्लरकेँ असमञ्जसमे पड़ल देखि मुसहरबा बाजल, ‘नइ बुझलहक? … अरे जेहन जनमदाता तोहर ऊ महटरबा मलङ्गिया हऽ, तेहने जनमदाता।’
नमहर साँस छोड़ैत बाजल मल्लर, ‘बाफ रे बाफ, तोँ तँ हमर दिमागे घुमा देने छलएँ रौ! हम तँ बुझलियै जे हा-हा-हा ….. अइ बुढ़ारीमे ठकाइ भाइ कहीँ दोसरे सगाइ-तगाइ ….. हा-हा-हा ….. ’
‘एह, केहन बात करै छह कक्का?’– कने धखाइतसन आवाजमे बाजल मुसहरबा, ‘से तँ हमर बाउ देवता हइ।’
‘तखन ई फेनो नालिसके बात?’
मल्लरक एहि प्रश्नपर मुसहरबाक भौँह तनि गेलैक। फेर ओ मल्लरेसँ पूछि बैसल, ‘ऐँ हौ कक्का, तोरा मोन छह– भरल समाजमे तोरा मूहेँ की बजबा लेने रहऽ ऊ महटरबा?’
मल्लर किछु मोन पाड़ैतजकाँ बाजल, ‘की?’
‘जे बलू गरीबके ने ओइ गुअरमिन्टीमे कफन भेटलै ने अइ गुअरमिन्टीमे।’
‘हँ, कहने तँ रहियै हम ई बात, मुदा ….!’– मल्लरक पल्ला नहि पड़ि रहल छलैक मुसहरबाक बात।
‘तोहर ओइ बातपर केना सबकोइ वाह-वाह कहि उठल छलै? तोरा हबोढकार कनैत देखि लोकक आँखिमे सेहो नोर छलकि आएल रहै।’– किछु आवेशमे आबि कहऽ लागल मुसहरबा, ‘जनै छहऽ कक्का, जेना नेताआउर नाटक कऽकऽ भोँट हँसोथि लै हइ, तहिनत्ती ई नटकियाआउर हमर-तोहर नोरक खेती कऽकऽ एकसे एक पुरस्कार हथिया लै हइ। अखने सेहो ….. ’
बातकेँ बिच्चेमे कटैत मल्लर बाजल, ‘रे हे, रे सएह पुछऽ तँ हम आएल रहियै ठकाइ भाइसँ। … अखुनिते जे ओइ मलङ्गिया माहटरकेँ एक लाख टकाकेँ पुरस्कार भेटलैए, तैमे हमरोआउरकेँ हिस्सा भेटैके चाही कि नइ?’
‘तोँ हिस्साकेँ बात करै छहक कक्का! हम तँ कहबह जे सोरहन्नी तोरेआउरके भेटऽ के चाहियह।’– मुसहरू अर्थऽबैत कहलकैक, ‘आखिर ओइमे ऊ केनही कथी हइ से! बूझि लएह जे पहिने-पहिने जेना मलिकबाआउरके खेतमे रोपनी कऽ अबै छलियै हमसभ आ फसिल काटिकऽ लऽ जाइ छलै ऊसब, इहो तहिनत्ती छियै। बुझह मलङ्गिया माहटर तँ तोरा खेतमे आबिकऽ खालि काजेटा केने हऽ। तँ एहनमे उपजा खाइके ओकरा कोन अधिकार?’
मुसहरबाक बातक समर्थनमे मूड़ी डोलबैत ठकाइ बाजल, ‘तेँ तँ ठकाइ भाइसँ विचार लेबऽ आएल रहियै।’
‘न्न, से काज भुलियोकऽ नइ करिहऽ कक्का।’ मुसहरबा सचेत करबैत बाजल, ‘नइ तँ बनलो काज भङठि जेतह। … तोरा जे तखनीसँ कहै छलियह, से नइ बुझलहक? … बाउ तँ ओकरेआउरकेँ भगवान बुझै हइ ने! की कहियह, अखनितो एक भार आम लेने गेल हइ डागदर धीरेन्दर ओइजऽ, जे धीयापुता खेतै कहाँदुन। आब तोँही कहक ने, आब अवस्था रहलै ओकर जे एहन भरिगर काज करै हइ! अइ बुढ़ारीमे राम नाम जपनाइ छोड़िकऽ एहन चमचागिरीके कोन परोजन?’
मुसहरबाक ई बात ओराएलो नहि छलैक कि मैल चिक्कट धोतीपर इस्टकोटमे मठोमट्ठ सरबे ढाकाटोपीसँ माथक घाम पोछैत धमक्का जुमि गेल ओहिठाम। आ अबिते ओ छूटल मल्लरपर, ‘केहन आदमी छऽ हौ मल्लर काका? हमरा चाहक दोकानपर बैठाकऽ अपना चाइने गप्प चुटैत अइजऽ बैठल हऽ?’
‘अबै रे सर्बे अबै। भन्ने अहीजऽ चलि एलेँ।’– हँस्सीएमे बजैत मल्लर कहलकैक, ‘रे हमराआउरके तँ खालि उठा-पटक मात्रे केलक ई जनमदातासुन। मुदा एकरा देखही जे ऊ परफेसरा रजिन्दर विमल नामे एहन धऽ देलकै जे बुझाइ हइ जेना सभक गरिपढुए होइ!’
‘हँ त नि, की कहियऽ मुसहरू भैया, जाले रामेछापमे छलियै ताले सबकुछो ठीके छलै नि! तर ऊ पहाड़ी टोपीवाल मधेसी मास्टर तँ हमरा कत्तौके पो नइ रहऽ देलक हौ!’ मुसहरबाकेँ अपनादिस सहानुभूतिपूर्वक तकैत पाबिकऽ सरबे आगाँ बाजैत गेल, ‘हम्रा दुखऽ के तँ कोनो ओरे नइ छै नि! … सोचऽ न, जकरा भगवानोसे बेसी ठानिके जिन्दऽगीभरी सेबैत रहलियै से बाउआमा सेहो शहर-बजार आ लछमीके दरश होइके साथे दरसेके भऽ गेलै। बाँकी बाँचल छलै हमरासँग तँ मात्रै हमर दुई थोपा आँसु। ओही आँसुसे रामेछापके धर्ती सिँचके अपन जिन्दऽगी कहुना घिसारऽके सोचने छेलियै। से ई परफेसरा हम्रा आँसु पुछऽ के बहानासे ओहो आँसु बेचके खा लेल्कै।’
बजैत-बजैत सरबेक आँखि डबडबा गेलैक। ई देखिकऽ मल्लर सफाइ देलकैक, ‘जाह, हम तै हिसाबे नइ कहने रहियौ रे बाउ। हम तँ ओहिना …।’ मल्लरक मोनमे भेल कचोटकेँ अन्दाजैत सरबे बाजल, ‘से बात नइ हइ नि काका! तोहीँ सोचऽ न, जखन अपन दुई थोपा आँसु सेहो अपनासँग नइ रहलै तखन ई जनकपुर नइ आबिके कतऽ जाइती तँ? आ जनकपुर आबैत साथे देखै छियै कि हम्रा एत्ते निम्मन नाम श्रवणकुमारके गाली बनाकऽ धऽ देने हइ– सर्बे। आब तोँही कहक न, एनामे रीस नइ उठतै तँ?’
मुसहरबा बातकेँ लौकैत बाजि उठल, ‘सरबे दाजू, तँ तोरा के कहै छह जे अपन पित्तकेँ समटि लएह! ठोकि ने दहक ठामहि मानहानीके मोकदमा। तऽ …. कहै छै जे ….।’
सरबेकेँ विचित्र भावसँ अपनादिस तकैत पाबिकऽ फेर बाजल मुसहरबा, ‘हौ, हमर मूह की बकर-बकर तकै छह? असली जनमदातासभ जे छलऽहए, से तँ अपन मतलब निकलिते ठिठुआ देखा देलकह! आ आब ई अपन मोन बहटारऽलए तोरा-हमरा जनमौनिहारसभ की सुथनी करतह? कतबो किच्छो कऽ लएह, नेरहामे कटहर नइ हऽ लागऽवला।’
‘नइ, जदि इएह बात हइ तँ असगरे सरबेए कैलए ठोकतै मुद्दा?’– फनकिकऽ बाजल मल्लर, ‘चल ने, मुद्दे तँ मुद्दे! सबकोइ एकहकटा मुद्दे दऽ दै छियै सारके। … हम तँ सम्पतिमे आधा हिस्साके मुद्दा ठोकि देबै। बड़ए जे लाखक लाख टकाके पुरस्कार सैँतने हए आ बपौतीक सङेसङ ससुरारियोके पूरा सम्पतिपर कुण्डली मारिकऽ बैसल हए, सबटा बाहर भऽ जेतै।’
किछु अचम्भित आ उत्सुक होइत सरबे पुछलकैक, ‘ऐँ हौ मल्लर काका, एते भित्री कुरासब तोँ कोना बुझ्ने छहऽ हौ? हम तँ खालि चाइने अपन जन्मऽदाताके उहे देवीचौकवाल बड़का कोठा मात्रै देखै छियै!’
‘रे तोहर परफेसरा अपना जनकपुरमे रहिकऽ तोरा जनमौलकौ रामेछापमे, तँ तोँ की जनबही भितरिया बात?’– आओर बेसी बुधियारीक अन्दाजमे मल्लर कहऽ लागल, ‘मुदा हमरा तँ ई महटरबा बभनगामासँ जनकपुर मात्रे नइ, अपन गाम मलङ्गियासँ सासुर ककनाधरि गरभेमे दौड़बड़हा करबैत-करबैत हरान कऽ देलक। तँ आब कह जे एतबो नइ जनबै?’
अचानक मुसहरबा खौँझाकऽ बमकि उठल, ‘तोँसभ बातकेँ हनहनाकऽ बढ़ैए ने दै छहक। जहाँ कि एक रति उपर मूहेँ बढ़ल कि कोनो फुसिआही गप्पक झटहासँ मुड़िए टोङि दै छहक। … अरे भाइ, अहिनत्ती जे बुलबुल्लानाहित पित्त जगबैत आ फोड़ैत रहबह तँ कुच्छो कएल हेतह?’
‘हँ त नि, मुसहरू ठीके कहै छऽ हौ काका। आब यदि सबकोइ मिलीजुलीके अपन अधिकारके लागि कुछो करैएके बात हइ तँ कहऽ न कथी करऽ पड़लै?’
सरबेक एहि बातपर फेर मुसहरबे बाजल, ‘जखन एहने बात हइ तँ खालि तीनिएगोटामे सलाह-मसबिरा केलासँ नइ हेतह। बल्कि चलै चलह सुगिया भौजीके चाह दोकानपर। भौजीयोके विचार बूझिकऽ नियारब जे की करबाक हइ।’
‘हेतै तँ चलै चल।’ कहैत मल्लर उठल आ गमछासँ पोन्हक गरदा झाड़लक। फेर तीनूगोटे ऊठिकऽ एकदम्म फुर्तीसँ विदा भऽ गेल सुगियाक चाह दोकानदिस। चलैत काल अद्भुत उत्साह आ उमङ्ग छलैक तीनूक चालिमे। मुदा सरबेक चालिमे किछु विशेषे उत्साह छलैक। सङहि आँखिमे चमक सेहो विशिष्ट प्रकृतिक।
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सुगियाक दोकानपर ईसभ पहुँचल तँ रौदिया, बहुरा आ रमाकान्त पहिनहिसँ चाहक चुस्की मारि रहल छल। एकरासभकेँ देखितहिँ रमाकान्त कहलकैक, ‘हौ मल्लर भाइ, एकरासभकेँ तोहीँ किएक ने समझाबै-बुझाबै छहक?’ एतेक सुनब छलैक कि मुसहरबा फनकि उठल, ‘कथी समझेतै यौ रमाकान्त बाबू? सब दिन ओकरेआउरके इशारापर नचैत रहू तँ बड़ निमन आ जहाँ कि से नइ भेल तँ समझऽ-समझाबऽ पर उतरि जाइ छी नइ?’
ठोरपर खप्पाजकाँ बैसल अपन उपरका दुनू दाँतकेँ अलगाबैत सुगिया सेहो टीप देलकैक, ‘हँ यै रमाकान्त बौआ। अहाँ बेकार अइ पच्चड़मे नइ पडू। … बड़ बढ़ियाँ, हमराआउरके हित-अपेच्छित बुझै छी तँ आउ बैठू … चाह पिबू, ….. आ होइए तँ हमरासुनकेँ अगाडि बढ़ैमे मदति करू। … नइ तँ एहन अपनैती नहिएँ देखाउ। तऽऽह ने … कहै छै जे बलू कथिदुनके पइर …।’
‘अजीब बात छै।’ रमाकान्त सफाइजकाँ दैत बाजल, ‘अरे जनमदाता की होइछै आ ओकरा असकतिएने वा असोथकित भेने की होइ छै से हमरासँ नीकजकाँ अहाँसभ नइ बुझबै। हम जनै छियै– जेँ हमसभ नीकजकाँ सङ्ग नहि दऽ सकलियनि, तेँ राना सुधाकरजी सेरा गेलाह आ ओ की सेरएलाह, हमरासभकेँ बुझै जाउ जे चिन्हनिहारो समाप्त भऽ गेल। … औजी, अहाँसभ तँ भागमन्त छी जे अहाँक परिवारमे एकसँ एक सदस्यसभ बढ़ि रहल अछि। अहाँसभक जनमदतोसभ अकाश चढ़ि रहल अछि, तेँ अहाँसभकेँ किछु कहै छियै तँ छजैए। मुदा सोचियौ, जइ लाल नूआक बदौलति अहाँसभ छमकै छी, सएह जँ फाटि जाएत तँ अहाँसभकेँ पुछनिहारो केओ रहत?’
एखनधरि गुममुम रहल रौदिया पूरा शास्त्रीएजीक अन्दाजमे बाजि उठल, ‘अएँ यौ रमाकान्त बाबू, दुनियाँमे अहीँ एकटा काबिल छियै कि आरो कियो छै? तखनिसँ भासनपर भासन जे देने जाइ छियै!’
अपनहिसन मूह बनाकऽ रमाकान्त बाजल, ‘औ, हम तँ दुन्नूभरसँ जाइ छी। ओमहर जतेक लिखनाहरसब छै, से सब कहैए जे हमहीँ सबके भड़का रहल छियै आ अइठामक बात सूनिकऽ एना लगैए जेना सबहक घीक घैल हमहीँ हेरा देने होइयैक। लियऽ, चुप्पे भऽ जाइ छी! … कोशिश करैत छलहुँ जे अहाँसभक बीच सामञ्जस्य आबि जाए, मुदा दीयरि बनिकऽ रहि गेलहुँ। बुझू जे दुन्नूभरसँ सागरके हिलोरक झटका खाइत-खाइत अपने खिआइत जा रहल छी।’
‘हँ-हँ छोड़िए दियऽ हमरासुनके।’– तामसे-पित्ते मूह झामर कएने बहुरा बाजि उठल, ‘बेकार किए झटका खाइत रहब आ किए अनेरे खिआइत रहब?’
हबर-हबर चाह सुड़कैत रमाकान्त अपनहिसन मूह लेने पड़ाएल ओतऽ सँ। मल्लर किछु काल एकपेड़ियापर सरसराएल चलि जाइत रमाकान्तपर टकटक्की लगौने रहल। फेर किछु सोचबाक अन्दाजमे ओकर आँखि सिकुड़ि गेलैक। मल्लरक मुखाकृति देखि सरबे मोनमे फूटैत लड्डूकेँ सम्हारैतजकाँ बाजल, ‘कथीलए अचम्म मानै छह हौ मल्लर काका? सबके मुटुमे फाल्टुमे ई उज्यालो थोड़ै न बरलैए!’ उपस्थित आँखिसभकेँ अपनादिस उत्सुकतासँ तकैत पाबिकऽ सरबे आगाँ कहैत गेल, ‘जहियासे ई लेखन्दाससुन अपन स्वार्थऽके टुकी बालिकऽ वास्तऽविक उज्यालोके ऊऽऽऽ ओइ पऽऽरऽ के गाछीमाथि सलीवपर टाङि देलकै, तहिएसे सबके चित्त त बूझिए गेलै नि! … लौ देखहक न काका, सबके मुटुमे कत्तेक निम्मनसे ई उज्यालो बरल हइ। … नइ तँ एहन कुरे कहाँसँ अबितै?’
‘चूप रहू यै सरबे। बड़े बजै छी अहूँ।’ श्रवणकुमारकेँ ई झाड़ देलाक बाद मल्लरदिस मुखातिब होइत बाजलि सुगिया, ‘आब इएह कहथुन तँ कका, ऊ जे नटकिया गलफरवला हइ रमेश, से हमर दुख-दरद सुनऽ आ बूझऽ के बहन्ने दोकानपर बैठल-बैठल पचासो गिलास चाह मङनिएँ पी गेल हएत। अपनेटा जे पिबितइ तँ बुझू कहुना सन्तोख कऽ लिती। मुदा बाटघाट चलनिहार जे केओ भेटै छलै, सबके हाक पाड़िकऽ चाह पिबऽ लए बोला लै छलै।’
‘हँ, से तँ कहबीए हइ ने जे मङनीमे पाबी तँ अस्सी मोन तौलाबी!’– बहुराक एहि टोकारीपर उत्साहित होइत सुगिया कहैत गेलि, ‘सएह ने! आ तकरा बाद देखियौ जे हमरे दोकानमे पिऔलहा फोकटिया चाहक बदौलति चुनाउओ जीत गेलै। से एखनीधरि अपन चानी पिटि रहल हए। … हम दिन-राति एक कऽकऽ चाह बेचैत रहै छी से हमरा एखनधरि एगो खोपड़ियो नइ बान्हल भेल हए आ ऊ, हमरे खिस्सा लोककेँ सुना-सुनाकऽ कोठा-सोफा बान्हि लेलक। … आब अहीँसुन निसाफ करै जाइ जाउ तँ– ओइ कोठामे चाहो दोकान करऽ लए सही, कमसँ कम एक्कोगो कोठली हमरो भेटऽके चाही कि नइ?’
‘सबके तँ अपने-अपने पड़ल हइ। … कोइ हमरो सुनतै?’– अपनादस लोकक ध्यानाकर्षण करबैत बाजल रौदिया, ‘हमरा तँ ओकर नामो कहैत अनछज्जल लगैए। … देखऽ मे तँ अनसरधे रहै, मगर नाम केहन … सुन्दर झा! आ कामो तेहने! हमरा लेल तँ मलिकबाक मूहसँ कहबा देलकै जे एखनू बखाड़ी नइ फुजलै, मगर अपना अही नामपर बखाड़ी भरनाइ कहियो नइ छोड़लक।’
‘उँह, बखाड़ीके बात करै छहक’– मूह धूआँ करैत बहुरा बाजल, ‘हमरा दुनू परानीकेँ अइजऽ अपन धनखेतीमे बोझा ढोबैत छोड़िकऽ रेवती लालजी एहन ने कमाल केलक जे अपना चलि गेल भरमनमे सोनावला सुरुजक देशमे, आ घुरतीपर हमराआउरलए एगो चिनिआही लड़ुओ नइ लौलक।’
‘चल, खुशी भेल जे सब कोइ कमसँ कम अपन अधिकारक लेल जागि गेलैए। हमरा तँ होइत रहए जेना ई गाछक फुनगीपरहक इजोत अनेरे अभरल हइ!’
सभक मोनमे उत्साहक लहरि हिलकोड़ैत देखि सरबेक मोन खुशीसँ उबजुब भऽ रहल छलैक। ओ मोनेमोन सोचि रहल छल– ईसभ जाहि इजोतकेँ देखिएकऽ खुशीक लावा फोड़ि रहल अछि, हमरा तँ ओहि इजोतक साक्षत दर्शन मात्र नहि, बातोचीत भेल अछि।
मुदा सरबेक मोनक उमङ्गसँ बेखबरि मल्लर अपनहि धुनमे छल। ओ ठोस आवाजमे बाजल, ‘आब सबकोइ अपन-अपन भाभट समटै जाइ जो। किए तँ ई रोदना पसारऽ सँ निम्मन जे आब करैके कथी हइ, से सबकोइ सोचै जाइ जो।’
ई बात होइते छलै ताऽ घुसकुनियाँ मारैत धुथरो जुमि गेल। सोझ भऽकऽ बैसल आ साँसकेँ नियन्त्रित करैत कहऽ लागल– ‘केना रोदना नइ पसारतै हउ मल्लर कका? ऊ चटपटिया हजामनाहित जे हइ धीरुवा, से हमरा मोनमे आश तँ बड़का बन्हा देलक। बुझाएल जेना कथागोष्ठीमे जाएवला ढौआ जँ हमरा दऽ देत तँ हमर जिनगीके गाड़ी छओ मास आओर ससरि जाएत। मुदा हमर आशके घास खुआबैत ओकरा ऊ फुसिआही कथागोष्ठी छोड़ल नइ भेलै। जखन धुथरे नइ रहतै तँ तँ धुथराके खिस्से सुनाकऽ कथी सुथनी हेतै? … कहऽ तँ भला जे ई कोन नियाए भेलै! जक्कर खिस्सा हइ से घिघरी काटिकऽ मरि जाइ आ खिस्सा दनदनाइत रहै! … हुँह, मुदा कौआ सरापे कहूँ बेङ मरलै गऽ? से देखहक, घिसियरे काटिकऽ सही, हम अखनोतोरी जीबै छियै कि नइ?’
‘ओइ धुत्रा, तुँ चुप लाग त!’– ओकरा डपटैतजकाँ बाजल सरबे आ फेर मुखातिब भेल मल्लरदिस, ‘हँ, लौ कहक काका, तुँ कऽथी कहै छलहक?
‘अरे उएह बात जे सब मिलिकऽ कथी करै जेबही से करै जो। नालिसे देबही तँ सएह सही। नइ तँ …… ’ मल्लरक बातकेँ बिच्चेमे लोकैत बाजि उठल मुसहरबा, ‘हौ कक्का, नालिस दऽकऽ की हेतै? … ओकराआउर जरे ढौआ-कौड़ी हइ। बड़का-बड़का लोकजरे चिनहो-जानी ओकरेआउरके हइ। कहीँ कुछो लऽदऽकऽ कोर्टे-कचहरीके अपनादिसन मोड़ि लेलकै तऽ?’
‘तक्कर चिन्ता तँ तुँ ठ्याम्मै नइ कर न हउ मुसहरू दाजु। एतेक भारी पाइला हमहुँसभ हावा तालमे तँ कहाँ पो चाल्ने छियै र! सप्पैजना करबै मात्रै कहक न, तेकरा बाद तँ कथी करऽ पड़तै, हमहुँसब राम्ररी जनै छियै नि!’– पूर्ण आत्मविश्वासक सङ्ग बाजल सरबे।
मल्लर किछु काल सरबेकेँ हियाबैत रहल। ओ किछु बाजऽ चाहिते रहए कि रौदिया बिच्चेमे टपकि पड़ल, ‘देखहक भाइ, हमर ऊ अनसरधे झा सबदिन अड्डे-कचहरी करैत रहलै। अइसँ होना-जाना कुच्छो नइ हइ। खालि टेमक बेरबादी। बल्कि चलऽ सबकोइ मिलिकऽ हड़ताल कऽ दै छियै।’
चाहवाली सुगिया बाजलि, ‘ठीक कहै छथिन रौदिया कका।’
धुथरा कहलक, ‘हँ, आ हमराआउरकेँ ककरो झुठफुसिया दरेगो नइ चाही।’
बहुरा सेहो तरङ्गि उठल, ‘एकदम सही छै। आइके बाद हमसब ककरो खिस्सा-पिहानीमे काज करऽ नइ जेबै।’
सभकेओ एक स्वरमे एहि बातक समर्थन कएलक। सरबे फानि उठल, ‘हम जाइ छियै सियाम, सुरेन्द्रऽ, अजोधी, घोघापुलवला, भनुभक्ता वर्मा, मेट्रोवला जीतेन्द्रऽ, भुवनेस्सर सबके घरसँ भुकना, भुस्सा, झुनिया जहाँ-जहाँ जे-जे भेटै हइ सबके बटोरने अबै छियै। उज्यालोके खबर ओक्रोसब लग पहुँचिए गेल छै।’
किछुए कालमे सभकेओ ओहि गाछक तर जा कऽ बैसि रहल, जकरा विषयमे प्रचारित रहैक जे साँझ पड़िते ओकर फुनगीमे एकटा दिव्य इजोत बरैत छैक। कतेकोगोटे तँ ओहि इजोतकेँ देखनहुँ छलैक, कतेकोगोटे की, बुझू जे गाममे लगभग सभगोटे। इजोतक मादे इहो कहल जाइत छलैक जे ओ एकटा एहन आदमीक आत्मा छियैक जे शोषित-पीड़ितक लेल अपन जान हाजिर कएने रहैत छलैक। सर्जकसभपर पाखण्डीक आरोप लगबैत इहो कहल जाइत छलैक जे ओहि इजोतकेँ इएहसभ मिलिकऽ जीविते सलीवपर टाङि देलकैक।
धरना जमि गेल छल। धरनाकारीसभक मूहसँ एकपर एक मन-तरङ्ग फूटि रहल छलैक–
– आब तँ सबके पेट फूलिकऽ त्राहि लागि गेल हेतै।
– तऽऽ, सब ढकारपर ढकार छोड़ैत हएत।
– हँ, तरो बाटे उपरोबाटे– ग्यास्टिकके ढकार।
– उँह, ढकारके बात करै छहक! सबके ऊ कहबी मोन पड़ैत हेतै– हदमद्दीसऽ उल्टी भला।
– हँ, मुदा कतबो बाप-बाप करतै, उल्टी नइ हेतै, खालि हदमदाइत रहतै ….।
धरनास्थलपर सर्जकसभकेँ प्रतिपक्षी बनाकऽ ओहने टीका-टिप्पणीसभ भऽ रहल छलैक जेहन होएबाक चाही। आन सभकेओ एहि आशमे मगन छल जे साहित्यकार-सर्जकसभक ख्यातिमे मात्र नहि, सम्पतिमे सेहो ओकरासभकेँ भरपूर भागीदारी भेटतै। मुदा सरबे विशेष प्रसन्न छलए जे मैथिली साहित्यक खम्हार आब मसोमात भऽ जेतै। मुदा एतबएमे धामन साँपजकाँ हनहनाइत एकटा लश्कर पूबमूहेँ अभरलैक। ई देखि धरनापर खलबल्ली मचि गेलैक। केओ चिचिआ उठल, ‘बाप रे बाप, भगै जाइ जो, हँसेरी!’
‘हँसेरी’ शब्दक उच्चारण सुनितहिँ सरबे अपन ढाकाटोपीसँ मूहक घाम पोछैत भयभीत आँखिएँ एमहर-ओमहर हुलुर-मुलुर करऽ लागल। खन गाछक टोइयापर चमचमाइत इजोतकेँ देखए आ खन क्षण-क्षण लग होइत हँसेरीकेँ। ओकर चेहरापर हवाइ उड़ैत देखि मल्लर, मुसहरबा, सुगिया, धुथरा, रौदिया, बहुरा सभ मोनमे अदङ्क आ आश्चर्य लेने अकुलाइत रहल। तैयो ओसभ भरोसाक मजबूत सिक्कड़ि पकड़िकऽ बैसल रहल। ओसभ सरबेक कहल एक्कहिटा बातकेँ गहियाकऽ धएने छल– जखन राघबे लला छथि सहाय तँ परवाहे कथीक? मुदा धरनापर कछमछ करैत बैसल सरबे अचानक टोपी सरिअबैत इस्टकोट लटकौलक आ लत्ते-पत्ते ओत्तऽ सँ नाङड़ि ठाढ़ कऽ लेलक। सरबेक पड़ाएब छल कि धरनापर हो-हो मचि गेलैक। विना कोनो गोली-गट्ठा चलनहि धरना-स्थलपर हड़विर्ड़ो मचि गेलैक। एहि हड़विर्ड़ो आ भगदड़मे चकचोन्ही लगबऽ वला भ्यापर लाइट सेहो गाछपरसँ धड़ाम दऽ खसल आ चूर-चूर भऽ गेल। इजोतक चकभाउर दैत भ्रमरसभ तेज रफ्तारसँ छिड़िया गेल– चारूभर पसरल फुलबारिदिस। आ लोक देखलक– एकटा अस्पष्टसन करिछोँह आकृति निवर्तमान इजोतवला गाछसँ नहुएँ ससरैत उतरल आ लङ्क लऽकऽ पड़ाइत अन्हारमे गुम्म भऽ गेल।
लोकक आँखिसँ जखन भ्यापर लाइटक चोन्हरी हटलै तँ देखल गेल– ओ हँसेरी नहि छल। बल्कि सुदीप झा, अमरेन्द्र यादव, नित्यानन्द मण्डल, शीतल कर्ण, सीताराम महतो, राकेशकुमार रोशन आदिक सङ्ग हाथमे हँसुआ-कोदारि लेने आबि रहल कथापात्रसभक लश्कर छल ओ। पूरबभरसँ भोरहरियामे अबैत ओकरासभक उत्साहप्रद यात्रा एहन लागि रहल छलैक, जेना सभकेओ मिलिकऽ कान्हपर ललका सुरुज लदने आबि रहल हो।