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मैथिलीमे तत्सम





रोशन जनकपुरी मैथिलीक हरेक विधामे कलम चलबैत छथि । गजल, कथा, लेख, समालोचना लेखन हिनक प्रिय अछि । मैथिलीमे तत्सम एहिपर हिनक नम्हर लेख अछि मुदा हिनक लेखनक जादू बुझि पढ़ब शुरु कएलाक बाद अन्त्य जाधरि नहि करब ओहिठामसँ उठएकेँ इच्छा नहि करत । हिनक हरेक रचनापर र्य लागु होइत अछि । तँ पढि़ हिनक टटका आलेख –

—रोशन जनकपुरी
सन् १९५६मे महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ‘बौद्धगान आ दोहा’ नाम स किछु अपभ्रंश कविता आ गीतसबके संग्रह छपौलैन । एहिमे रहल पदसबमे गन्डकी नदी स पूर्वके प्रदेशके भाषासबके चिन्हसब छल । ई चिन्हित शब्द आ वाक्यावलीसब बांग्ला, मैथिली, मगही, भोजपुरी, उडि़या भाषाके निकट छल । शास्त्रीजी त बौद्धगान आ दोहाके भाषाके बंगाली दावी कयने छलैथ । लेकिन बादके अनुन्धानसभ हुनकर दावीके खण्डित क’देलक ।
बादमे सुप्रसिद्ध विद्वान राहुल सांकृत्यायन बौद्धगान आ दोहाके अपन सम्पादनमे प्रकाशित करौलैन आ एकरा हिन्दीके आदिरुप कहलैन । लेकिन इहो उचित नइँ छल । ई तथ्यसभके अपना अनुकूल उपयोग छल । कारण, बौद्धगान आ दोहामे प्रयुक्त शब्दसब गन्डकी नदी स पूर्वके प्रदेशमे बाजल जायबला कयटा स्वतन्त्र भाषाके स्रोत संकेत छल । महामना सांकृत्यायन हिन्दीके आदिभाषाके तर्कके माध्यम स अन्य सब भाषाके इतिहासके उपेक्षित क’रहल छलाह ।
हिन्दीके प्रसिद्ध विद्वान तथा समालोचक हजारीप्रसाद द्विवेदी सेहो, बौद्धगान आ दोहामे प्रयुक्त भाषाके पूर्वी प्रदेशके भाषासब मैथिली, भोजपुरी, मगही, उडि़या आदि भाषाके आदि स्रोत मानैत छलाह ।
महामहोपाध्याय पण्डित हरप्रसाद शास्त्री नेपालके दरबार लाइब्रेरी (अखन ‘राष्ट्रीय अभिलेखालय’) स विद्यापतिके ‘कीर्तिलता’ आ ‘कीर्तिपताका’के खोजी क’क’ बंगाक्षरमे सन् १९२४मे प्रकाशित करौलैन । कीर्तिलता आ कीर्तिपताकामे प्रयोग भेल भाषाके विद्यापति स्वयं अवहट्ट (संस्कृत ः अपभ्रष्ट अर्थात् अपभ्रंश) कहने छैथ । अइ दुनू (कीर्तिलता आ कीर्तिपताका)मे कैयक ठाम मैथिली भाषाके प्रयोग भेल अइछ ।
सन् १९०१मे बंगाल एसियाटिक सोसाइटीके चिठ्ठी लीख क’ पं शास्त्री ज्योतिरिश्वरके ‘वर्णरत्नाकर’के बारेमे सेहो जानकारी देलैन । ई पुस्तक प्राचीन मैथिलीके दृष्टि स’ उत्तम त छैहे, तात्कालीक समाजक परिवेश आ रीतिथितिके बारेमे सेहो यथेष्ट जानकारी दैत अइछ ।
तथापि विद्यापति मात्र नइँ, चौदहम शताब्दीमे ज्योतिरिश्वर स पहिनही स मैथिलीमे तत्सम शब्दके प्रवेश भ’ चुकल छल । विद्यापतिके तुलनामे ज्योतिरिश्वरके रचनामे प्राचीन मैथिलीके दर्शन बेसी होइत अइछ । तैयो, हुनको रचनामे तत्सम शब्दसबके पर्याप्त प्रयोग भेल अइछ आ से स्वाभाविकरुपे भेल सेहो बुझाइत अइछ ।
मैथिलीमे तत्सम शब्दके प्रयोग दसम स चौदहम शताब्दीके मध्य प्रारम्भिक प्रयोग होब’ लागल छल से मध्यकालीन साहित्यसबके अध्ययन स बुझाइत अइछ । वस्तुतः एकर एकटा कोण बौद्ध आ शैव (वैष्णवी सेहो)बीचके साम्प्रदायिक कटु प्रतिद्वन्दिता आ तहिना प्राकृत आ संस्कृत बीचके भाषिक द्वन्द्वक ऐतिहासिकतामे नुकायल अइछ । आठम् शताब्दीमे शंकाराचार्यके धर्म दिग्विजय अभियानके बाद गंगाके उत्तरी मैदानी क्षेत्रमे जनसमुदायमे बौद्धधर्मके पकड कमजोर भेल जा रहल छल । अही क्रममे प्राकृत आ पालीके तुलनामे संस्कृत फेर स पुनर्प्रतिष्ठित भ’ रहल छल । एकर प्रभाव संस्कृत इतर अन्य भाषासब पर सेहो पड़ल । एहे ओ समय छल, जतह स मैथिली, भोजपुरी लगायत पूर्वी प्रदेशक लोकभाषा सबमे तत्सम शब्दके प्रवेश होब’ लागल ।
आधुनिक हिन्दीके शिखरतम् विद्वान सबमे एक पं रामचन्द्र शुक्ल सन् १९२९मे ‘हिन्दी शब्द सागर’मे पहिलबेर हिन्दीके क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत कयलैन । कहैला त ई हिन्दीके इतिहास छल, लेकिन अइमे अपभ्रंश, मैथिली, भोजपुरी, मगही, अवधी, राजस्थानी आदि गंगाके उत्तरी मैदानीक्षेत्रके भाषा आ बोलीके ऐतिहासिकता समेटल छल । वस्तुतः ईहो ऐतिहासिक तथ्यसबके चतुराईपूर्वक अपना अनुकूल उपयोग छल । पं. रामचन्द्र शुक्ल सेहो गंगाके उत्तरी मैदानी क्षेत्रमे बाजल जायबला लोकभाषाके प्राचीनताके ‘प्राचीन हिन्दी’ कहिदेलैन ।
गंगाके उत्तरी मैदानी क्षेत्रमे बाजल जायबला लोकभाषासब प्रतिके उपेक्षा भाव राख’बला पं.शूक्ल आ पं. द्विवेदी मात्र नइँ छलाह । हुनकासब स पहिने, हिन्दीके एकटा प्रारम्भिक साहित्यकार पं. चन्द्रधर शर्मा अप्रभंशभाषाके रचनासब कुमारपाल चरित आ शारंगधरकृत हम्मीर रासोके सेहो ‘पुरानी हिन्दी’ कहबाक सुझाव देलैन ।
अपभ्रंश
अही क्रममे आउ कने अपभ्रंश भाषाके सेहो चर्चा कयल जाय । सन् १८७७मे जर्मन भाषाशास्त्री पिशेल जर्मनीके ‘हाल’ नगर स पहिलबेर ईसाक एगारहम शताब्दीक आचार्य हेमचन्द्रकृत अपभ्रंश भाषाके व्याकरण प्रकाशित करौलैन । पिशेल महोदय अइ पुस्तकक आधारपर अन्य प्राकृतसंगे अपभ्रंशके सेहो विवेचना कयलैन । हुनक मत छल जे अपभ्रंश भाषाक विपुल साहित्य सेहो कहियो वर्तमान छल । एतह उल्लेखनीय अइछ जे जैन धर्मक एकटा प्रसिद्ध मुनि जिनविजय पिशेलके क्षमताके देखैत हुनका अपभ्रंशके पाणिनि कहैत छैथ ।
अपभ्रंश आधुनिक भाषासबके उदय स पहिने गंगाके उत्तरी मैदानीक्षेत्रमे बोलचाल आ साहित्य रचनाके सब स जीवन्त आ प्रमुख भाषा छल । एकर समय छठम स आठम शताब्दी मानल जाइत अइछ । भाषा वैज्ञानिक दृष्टि स अपभ्रंश दक्षिण एसियाइ आ विशेष क’ गंगाके उत्तरी मैदानीक्षेत्रमे आर्यभाषाके मध्यकालक अन्तिम अवस्था अइछ । एकरा अहाँ प्राकृत आ आधुनिक भाषा बीचके स्थिति सेहो कहि सकैछी ।
अपभ्रंशके कविसब अपन भाषाके भाषा, देसी भासा वा गामेल्ल भाषा अर्थात् ग्रामीण भाषा कहने अइछ । मैथिलीमे श्रमजीवि जातिय समुदायसबके बोलीके लेल प्रयोग होब’बला ‘ठेठी’ सम्बोधन स ‘गामेल्ल’के तुलना कयल जा सकैत अइछ (ठेठ माने देहात, गाम आ ओतह बाजल जायबला बोली ठेठी) । संस्कृतके व्याकरण आ अलंकार ग्रन्थसबमे ओकरालेल प्रायः अपभ्रंश आ कतौ कतौ अपभ्रष्ट सम्बोधन कयल गेल अइछ । विद्यापति अही अपभ्रष्टके अवहट्ट कहलैन । एतह ई ध्यान रखनाई उचित होयत जे विभिन्न प्रदेशमे प्राकृतक फरक फरक रुप छल आ तयँ अपभ्रंशक रुप सेहो विविध छल । विद्यापति अपभ्रंश वा अवहट्टक जाहि रुपक प्रयोग कयलैन ओ मैथिली, भोजपुरी, मगहीके बेसी आ किछु बंगाली आ उडि़याके निकट अइछ । तत्कालीन समयमे लोकप्रचलित देसी भाषासब संस्कृत आचार्यसबहक दृष्टिमे प्रतिमान स च्युत, स्खलित, भ्रष्ट छल, तयँ ओसब एकरा तिरस्कारस्वरुप अपभ्रंश कहलैन । (मैथिलीमे ठेठीप्रतिके हेय भाव एकरे उपज अइछ) । सम्भव अइछ संस्कृतक आचार्यसबके आलोचना आ तिरस्कारेके ध्यानमे राखैत विद्यापति कीर्तिलतामे अवहट्टके ‘देसिल बयना सबजन मिठ्ठा’ कहलैन । अइ प्रसंगमे सातम शताब्दीक दण्डीके कहब सान्दर्भिक अइछ । ओ स्पष्ट कहलैन जे ‘शास्त्र’ अर्थात व्याकरण शास्त्रमे संस्कृत इतर शब्दसब अपभ्रंश अइछ । अइ हिँसाबे पालि–प्राकृत शब्दसब अपभ्रंश अइछ । ओना सम्बोधनक दृष्टि स पाली प्राकृतके अपभ्रंश नइँ कहल गेल अइछ । उपरे कहल गेल अइछ जे अपभ्रंश प्राकृत आ आधुनिक भाषासबहक बीचके स्थिति अइछ ।
जे से, विषयपर लौटी । उपर चर्चा कयल जे, शंकरक धर्म दिग्विजयके बाद बौद्धधर्म आश्रित पाली–प्राकृत कमजोर होइत गेल । शंकरक अद्वैत वेदान्त आ एकरा संगे शैव आ वैष्णवी मत सेहो समाजपर हावी होइत गेल । अही कारण प्राकृतक तुलनामे संस्कृतके प्रभाव बढ़ल । एकर प्रभाव लोक समुदायमे प्रचलित लोकभाषासब पर परल आ तत्सम शब्दके प्रचार प्रसार भेल । तथापि शंकरक मतके प्रतिपक्षमे ठाढ़ बौद्ध आ जैन, विशेषतः जैन आचार्यसब संस्कृतक प्रयोगके विपक्षमे छल आ ओ सब एकर प्रयोगके दृढ़तापूर्वक निषेध कयलक । बौद्धमतमे ई संस्कृतविरोधी दृढ़ता बहुत नइँ चलल, लेकिन जैन आचार्यसब एकरा बहुत हद तक कायम रखलक । अइ कालमे प्राकृत आ अपभ्रंशपर पड़ैत संस्कृतक प्रभावक कारणे प्राचीन मैथिलीक अनेको शब्दके रुप बदैल गेल आ ओकर वाचन आ लेखनमे संस्कृत तत्सम शब्दक प्रभाव बढ़ल । एहे ओ समय छल, जइमे संस्कृतके ध्वनि लोप सिद्धान्तके सहारे प्राचीन मैथिलीक ‘पाइन’ ‘पानि’ भ’गेल । ई संस्कृतक प्रतिष्ठाके आकर्षणे छल जे प्राचीन मैथिलीके शब्दसब त, स, आदिमे चन्द्रबिन्दु आ चन्द्रबिन्दुबला शब्दसबमे अनुस्वारके प्रयोग होब’ लागल । ई एक हिसाबे नीको छल जे अइ स मैथिलीक कोष समृद्ध भ’ रहल छल । दोसर दिस ई बेजाय सेहो छल जे संस्कृतक क्लिष्टताके कारण मैथिलीक एकटा रुप कठिनाह भेल । आब मैथिलीक दूटा स्वरुप बनल, एकटा जे मैथिलीक विद्वान आ अभिजात्यक बोली छल, जे आधुनिक साहित्यके आ राज्यसत्तापर अभिजात्यवर्गीय वर्चस्वके भाषा सेहो बनल । दोसर दिस लोकजीवनमे प्रयुक्त मैथिली छल, जइमे अपभ्रंशके निकटक प्राचीन मैथिलीक शब्द भण्डार छल, जे बादमे ठेठी कहल गेल आ जे धीरे धीरे तिरस्कृत भेल जा रहल छल ।
एहि सन्दर्भमे अपभ्रंशपर संस्कृत तत्सम शब्दके बढ़ैत प्रभावके बारेमे पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदीके उद्धृत कयनाइ रोचक होयत । उद्धृतांश पाठ कने नम्हर अइछ । ‘हिन्दी साहित्यका आदिकाल’मे ओ लिखैत छैथ ः
“….धीरे धीरे संस्कृतके तत्सम शब्द अधिकाधिक मात्रामे आब’ लागल । से, अइ कालके भाषाके मूख्य प्रवृत्ति बोलीचालीमे तत्सम शब्दसबके प्रचार भेल । स्वर्गीय पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी बतौने छैथ जे “विक्रमके सातम स एगारहम शताब्दीतक अपभ्रंशके प्रधानता छल आ फेर ओ ‘पुरानी हिन्दी’(?)मे परिणत भ’गेल । अइमे देसीके प्रधानता अइछ, विभक्तिसब घसा गेल अइछ, खिया गेल अइछ । एक्केटा विभक्ति ‘हे’ वा ‘आहँ’ कयटा काज देब’ लागल अइछ । वैदिक भाषाके अविभक्तिके निर्देशके विरासत सेहो एकरा भेटल । विभक्तिसबके खिया गेला स अनेक अव्यय वा पद लुप्त–विभक्तिक पदके आगू राखल जाय लागल, जे विभक्ति नइँ छल ।
क्रियापद सबमे मार्जन भेल । हँ, ई केवल प्राकृतेके तद्भव आ तत्सम पद नइँ लेलक ; धनवती अपुत्रा मौसी (संस्कृत) स सेहो कयटा तत्सम पद लेलक । अपभ्रंश साहित्यके भाषा भ’गेल छल । ओत’ ‘गत’ सेहो ‘गय’ आ ‘गन’ भ‘गेल । काच (काज?), काक, काय, कार्य सबके लेल काय (काज?) । अइमे भाषाके प्रधान लक्षण–सुनलापर अर्थबोधके व्याघात होइत छल । अपभ्रंशमे दुनू प्रकारके शब्द भेटैत अइछ । जैनसब संस्कृत शब्दसबके बहिष्कार अवश्य करैत रहल, लेकिन ओ (संस्कृत तत्सम) अबिते रहल । चंंद बरदाईके रासो अपन मूलरुपमे सुरक्षित नइँ रहि सकल अइछ । अइमे बहुतरास प्रक्षेप भेल अइछ । तैयो एकर वर्तमान रुप स (जे सतरहम शताब्दीके ल’गके अइछ) अनुमान कयल जा सकैय जे अइमे संस्कृत दिस जायके प्रवृत्ति अइछ ।
तद्भव शब्दसबमे अनुस्वार लगाक’ संस्कृतके छौँक देनाइ तत्कालीन भाषाके नवका घुमाओके सूचना दैत अइछ । लेकिन अइ स बेसी किछु नइँ कहल जा सकैय । सूरदास, तुलसीदास, बिहारी आदि परवर्ती कविसबके भाषामे निश्चित रुप स तत्सम शब्दके अबाध प्रवेश होब’ लागल छल ; परन्तु हुनकर प्रयोगसबके अध्ययन कयला स एकटा बात स्पष्ट भ’जाइत अइछ जे तत्सम शब्दसबके प्रयोग नवका ढंग स होब’लागल अइछ । ‘विधुबैनी’मे ‘बैनी’ परम्परा प्राप्त शब्द अइ आ ‘चन्द्रवदन’मे बदनि नवका घुमावके सूचना दैत अइछ । ‘लोयन कोयन’ मे ‘लोयन’ पुरान स्मृतिके चिन्ह अइछ आ ‘सोचविमोचन लोचन’मे ‘लोचन’ नवका प्रभावके द्योतक अइछ । ‘मैन–सर‘मे ’मैन‘ पुरान विरासत अइछ आ ’मदनमोहन‘मे मदन नवका अतिथि अइछ । स्पष्टे दसम स तेरहम शताब्दीतकके बोलीचालीके भाषामे संस्कृत–तत्सम शब्दसबके प्रयोग बढ़’लागल छल । अइ किछु शताब्दीमे अपभ्रंश स मिलैत जुलैत भाषा पद्यके वाहन बनल रहल आ गद्यके भाषा तत्सम–बहुल होइत गेल । कीर्तिलतामे एकर स्पष्ट सूचना भेटैत अइछ । धीरे–धीरे तत्सम शब्दसब आ ओकर नवका तद्भवरुप सबके कारण भाषा बदललसन बुझाय लागल आ चौदहम शताब्दीके बाद ओ बदलिए गेल । अइ स पहिने अपभ्रंश आ देसी मिश्रित अपभ्रंशके प्रधानता कायम रहल । अइ तरहे दसम स चौदहम शताब्दीके काल, जकरा हिन्दीके आदिकाल (?) कहैत अइछ ; भाषाके दृष्टि स अपभ्रंशेके प्रोत्साहन अइछ । अही अपभ्रंशके प्रोत्साहनके किछु लोक उत्तरकालीन अपभ्रंश कहैत अइछ आ किछु लोक ‘पुरानी हिन्दी’ । अइ ‘पुरानी हिन्दी’के किछु पुरान नमूना शिलालेखसबमे भेटैत अइछ । बारहम शताब्दीतक निश्चितरुप स अपभंशे पुरानी हिन्दीके रुपमे प्रयोग होइत छल, यद्यपि ओइमे नवका तत्सम शब्दसबके आगमन शुरु भ’गेल छल । गद्य आ बोलीचालीके भाषामे तत्सम शब्द मूलरुपमे राखल जाइत छल, लेकिन पद्य लिखैतकाल ओकरा तद्भव बनाब’के प्रयत्न कयल जाइत छल ।” (हिन्दी साहित्य का आदिकाल, डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी, साहित्यिक निबन्ध, सम्पादन ः धीरेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री, प्रकाशक ः मोतीलाल बनारसीलाल, पटना, पृष्ठ ५५)
अइमे ऐतिहासिक तथ्यसब ठीक अइछ । बस एतबे चतुराइ अइछ जे गंगाके उत्तरी मैदानमे विकसित बोलचालके सब भाषाके हिन्दीके इतिहासमे समेट देल गेल अइछ । तथापि ई उद्धरण लोकभाषासबमे तत्सम शब्दसबके प्रवेश, ओकर ऐतिहासिक कारण आ प्रक्रिया स परिचित करबैत अइछ । मैथिलीमे तत्सम शब्दके प्रवेश सेहो अहिना भेल ।

अतिरिक्त सामग्री
चौदहम शताब्दी तक देसी भाषाके साहित्यपर तद्भव शब्दक आधिपत्यबला अपभ्रंशके प्रभाव छल ।
दसम शताब्दी स बोलीचालीके भाषामे तत्सम शब्दक प्रवेश आ चौदहम शताब्दीके प्रारम्भ स त तत्सम शब्द निश्चितरुप बेसी व्यवहृत होब’लागल ।
भक्तिके नवीन आन्दोलनसब अनेक लौकिक जनआन्दोलनके शास्त्रके पल्ला पकडा देलक आ भागवत पुराणके प्रभाव व्यापकरुप स परल । शांकर मतके दृढ प्रतिष्ठा सेहो बोलीचालीके भाषामे आ साहित्यके भाषामे तत्सम शब्दसबके प्रवेशके प्रोत्साहित कयलक । तत्सम शब्दसबके प्रवेश स पुरान भाषा एकाएक नवीन रुपमे प्रकट भेल, यद्यपि ओ ओतेक नवीन सेहो नइँ छल । दसम स चौदहम शताब्दी कालके साहित्य अपभ्रंशप्रधान साहित्य अइछ ।
युक्तिव्यक्तिप्रकरण (बारहम शताब्दी)के लेखक दामोदर शर्मा सम्भवतः राजपुत्रसबके शिक्षक छलाह । ई ग्रन्थ डा. सुनितिकुमार चटर्जी द्वारा सम्पादित सिंघी जैन ग्रन्थमाला स प्रकाशित भेल अइछ । अइ पुस्तकमे एना लीखल अइछ ः वेद पढ़ब, स्मृति अभ्यासिब, पुराण देखब, धर्म करब । डा. मोतीचन्द एकरा काशीके भाषा आ डा. द्विवेदी बारहम शताब्दीक बनारसी भाषाके नमूना कहैत छैथ । लेकिन ई नवीन मैथिली स समतुल्य अइछ ।
विद्यापति पद्यमे अपभ्रंशे जका तद्भव शब्दसबके प्रयोग करैछैथ, लेकिन जैन लेखकसबजका संस्कृतके सम्पूर्ण बहिष्कार नइँ करैत छैथ । यद्यपि जखन ओ गद्य लीख’ लगैत छैथ त हुनकर भाषामे तत्सम शब्दसबके पथार लाग’लगैत अइछ । एकर अर्थ भेल जे पद्यमे त थोरबहुत पुरानपन तहियो बाँकिए छल, लेकिन बोलीचाली आ गद्यमे तत्सम शब्दसबके प्रयोग बइढ़ रहल छल । विद्यापतिके पदावलीमे त तत्सम शब्दसबके प्रयोग बहुतरास अइछ, लेकिन ओकर स्वरुप बहुत बदलैत रहैत अइछ ।
ज्योतिरिश्वरके त सउँसे पुस्तके गद्यमे अइछ । हुनकर भाषामे संस्कृत शब्दसबके प्रयोग बतबैत अइछ जे तत्कालीन गद्य साहित्यमे तत्सम शब्दक प्रयोग बइढ़ रहल छल ।
इहो एकटा तथ्य अइछ जे जइ पुस्तकसबके एतह उल्लेख भेल अइछ ओकर लेखकसब पूर्व प्रदेशी संस्कृताभ्यासी ब्राह्मण पण्डितसब छैथ ।
सन् १०८०के आसपास काशी आ कान्यकुब्जमे गाहड़वार वंशीय प्रतापी राजा चन्द्रके उदय भेल । अइ कालमे केन्द्रिय शासनके शिथिल भेलाके कारण उत्तरभारतमे अराजकताके स्थिति छल । राजा चन्द्रदेव समस्त उपद्रवीसबके शान्त कयलक आ राज्य स्थापित कयलक । अइ तरहे करीब दूसय वर्षतक कन्नौज, काशी, अवध आ पश्चिमी आ उत्तरी बिहार गाहडवार राजासबके हाथमे रहल । अइ वंशके सब स प्रतापी राजा गोविन्दचन्द्र छल, जेकरा एकदिस बंगालके प्रबल शासक पालसब स लोहा लेब परैत छल त दोसर दिस पश्चिम दिस स मुसलमान आक्रान्तासबके निरन्तर आक्रमणके सामना कर’ परैत छल ।
गाहडवार राजासब बाहर स आयल छल । से ओहो सब स्थानीय जनता स बहरिएजका व्यवहार करैत छल आ अपन श्रेष्ठताके प्रयत्न करैत छल । अही कारण स लोकमे प्रचलित देसी भाषा साहित्यके कोनो प्रश्रय नइँ भेटल । ओ सब वैदिक संस्कृतिके उपासक छल आ ओसब बाहर स बजा बजा क’ ब्राह्मणवंशके लोकसबके दान द’ क’ बसा रहल छल । ओ सब संस्कृतके प्रोत्साहन कयलक । जेना गौड (बंगाल)देशके पाल, गुजरातके सोलंकी आ मालवाके परमारसब देशभाषाके प्रोत्साहन देलक, तेना गोविन्द्रचन्द्रके दरबारमे नइँ भेल । अइ उपेक्षाके एकटा कारण गाहडवारसबके बाहरके भेनाइ आ देसी लोकसबसंगे निकटता स्थापित नइँ क’ सकनाइ छल । एकर दोसर कारण संस्कृत भाषा आ वर्जनशील ब्राह्मण व्यवस्था स अधिकाधिक निकट रहनाई स्थानीय जनताके दृष्टिमे उप्पर उठ’ के साधन छल ।
अन्तिम बात
मैथिलीमे तत्सम शब्दक प्रवेश एक दिस अइ भाषाके समृद्ध कयलक त सत्तापर वर्चस्वक कारण एकर प्राचीनता आ ग्रामीण रुप (अपभ्रंशके ‘गामेल्ल’ भाषा)के भाषिक समुदायमे हीनताबोध सेहो जन्मौलक । यद्यपि समयसंगे किछु परिमार्जन सहित प्राचीन मैथिली आ जनसमुदायक मौखिक बोली, गायन, गाथा आ खिस्सामे जीबित रहल । संस्कृत देवभाषा छल । शुद्ध वेहे छल जे पुराण आ देवविहित छल । तयँ संस्कृत अभ्यासी पण्डितसबहक तत्सम मिश्रित बोली आ लेखन अभ्यास शुद्ध आ मानकक कुर्सीपर विराजमान रहल । समय संंगे लोक आ देव (शासक)बीचके ई भिन्नता आ अन्तर्विरोध सेहो परिमार्जित होइत रहल । ओ ‘गामेल्ल’ वा ‘देसी’ मैथिली अखन ठेठीके रुपमे अपन परिचयके लेल प्रयत्नरत् अइछ । नेपाल आ भारत, दुनू कात मैथिलीभाषी समुदायमे यी अन्तर्विरोध विद्यमान अइछ । वर्चस्वके दृष्टि स देखल जाय त अखनो ठेठी मैथिली पछुआयले अइछ । एकर एकटा कारण शासकीय अवसर आ सुविधाके लोभमे ठेठी मैथिलीभाषी विद्वानसबके सेहो तत्सम बहुल मैथिलीमे ओझरयनाई अइछ । नीक होइत जे ओ सब तत्सम बहुल मैथिलीके ओही बोली समुदायके छोडिदितैथ आ Þअपन स्वाभाविक बोलीमे लिखितैथ । अइ बीचमे लोक गाथा आ लोक गीतक किछु गम्भीर पुस्तक देखलहुँ । अइमे लोक गाथासबके अनेक शब्दसब से तत्समी मैथिलीमे परिवर्तित छल । ई ठेठी (वा हमरा शब्दमे श्रमजीवि जातिय)मैथिलीमे एकटा गम्भीर संकट जका अइछ । अहू कारण अइछ जे, अइ पुस्तकसबके सम्पादन तत्समी मैथिली बला मात्र नइँ, कैयकटाके ठेठीभाषी विद्वानसब सेहो कयने छैथ ।
एतेक होइतो एकटा नवपुस्ता आन्दोलनके रुपमे नजर आइब रहल छैथ, जे कथित शुद्धता आ मानकता स मुक्त, मैथिलीक सब रुपके स्वीकार्य आ प्रोत्साहित क’ रहल छैथ । मैथिलीक दीर्घ जीवनके लेल ई सही दिशा अइछ ।
ओना यथार्थ ई अइछ, जे मैथिलीक प्राचीनता आ मौलिकता ठेठी मैथिलीएमे जीबित अइछ । यद्यपि मैथिलीके जीवन सर्वव्यापकतेमे अइछ ।