डा.रमण मैथिली साहित्यक चर्चित नाम छथि । समालोचनामे एखनकेँ समयमे हिनक हाथ पकड़एवला किओ नहि अछि । ७६ वर्षक उमेरमे सेहो ओतवए सक्रिय भऽ कऽ लिख रहल छथि । एखनधरि मौलिक आ सम्पादन सहित हिनक ५० टा पुस्तक प्रकाशित अछि ।मिथिला आ कामरूपक भाषा–साहित्यमे सम्बन्धमे हिनक बहुत महत्वपूर्ण लेख रहल अछि ।
मिथिलाः
‘बृहद् विष्णुपुराण’मे एकटा घटना वर्णित अछि। घटना छैक जे एक दिन लक्ष्मी वैकुण्ठसँ आकाश मार्गें कतहु जाए रहल छलीह। ओहि क्रममे जखन ओ नीचाँ दिस तकलनि तँ धरतीक सौन्दर्य देखि निकटसँ देखबाक इच्छा भेलनि। लक्ष्मी विमानसँ उतरि गेलीह। जतए ओ उतरल छलीह, से भूखण्ड मिथिला छल। मिथिलाक सौन्दर्य आ कला देखि अकस्मात् लक्ष्मीक मुहसँ बहरा गेलनि – ‘वैकुण्ठान्न कला न्यूना दृश्यते मिथिला मया’ – वैकुण्ठक कला मिथिलाक कलासँ न्यून अछि। लक्ष्मीक पैरक स्पर्शसँ अर्थात् वैकुण्ठक स्पर्शसँ मिथिलाक धरती आर बेसी सौन्दर्यमय भए गेल।
मिथिलाक ई सौन्दर्य दू स्थितिक दिस संकेत करैत अछि – मिथिलाक प्राकृतिक सौन्दर्य आ मिथिलाक कलाकार द्वारा सृजित कलाकृतिसँ उत्पन्न सौन्दर्य। प्राकृतिक सौन्दर्य तँ ईश्वर प्रदत्त अछि तेँ किछु कहबाक प्रयोजन नहि। मुदा, कलाकृति – स्थूल हो वा सूक्ष्म – निर्माण करैत छथि कलाकार। कलाकारक कला-चेतना कलाकारक परिवेशपर निर्भर करैत अछि। कलाकृति परिवेशसँ प्रभावित होइत अछि। हमसब जनैत छी जे प्राकृतिक परिवेशसँ लोकक स्वनतन्त्र (vocal chord) सेहो प्रभावित होइत छैक। भाषा थिक ध्वनि आ ध्वनिक कर्कश होएब अथवा मृदुल होएब क्षेत्रक प्राकृतिक स्थिति आ परिवेशपर निर्भर करैत अछि। जखन पश्चिम भारत आ पूर्वी भारतक निवासीक बाजब सुनबैक तँ ई अन्तर स्पष्ट बुझबामे आबि जाएत। जाहि मिथिलाक प्राकृतिक सुषमा वैकुण्ठवासी लक्ष्मीकेँ अपन दिश आकर्षित कए लेने छल, ओहि क्षेत्रक भाषाक कोमल आ मधुर होएब सर्वथा स्वाभाविके छैक।
असम:
मिथिलामे लक्ष्मी उतरि गेल छलीह। मुदा कामरूपमे शक्तिक अंगे खसल छलनि। से ओ अंग जे सर्जना करैत अछि आ शक्तिपीठक रूपमे प्रख्यात अछि। ओकर महत्त्व, भव्यता आ प्राकृतिक सौन्दर्य अतुलनीय होएब स्वाभाविके छैक। ओहिना असमिया भाषामे मिथिला भाषासँ कनिको कम श्रुति माधुर्य नहि छैक। मिथिलाक धरती समतल अछि। समतल भूमिक लोककेँ जीवन-यापनक लेल ओतेक शारीरिक श्रम नहि करए पड़ैत छैक। कामरूपक भूमि समतल आ गिरि-बन प्रान्तरबला अछि। तेँ कामरूपक लोकमे श्रम-क्षमता अपेक्षाकृत बेसीए छनि।
नामकरणः
विदेह जनपदसँ तिरभुक्ति वा तिरहुति होइत मिथिला भेल अछि। मिथिलासँ सम्प्रति राजनीतिक क्षेत्र विशेषक बोध नहि होइत छैक। अपितु एक विशेष प्रकारक संस्कृतिक बोध होइत छैक। अपन एहि संस्कृतिक संग मैथिल देश भरिमे कोला-कोलामे पसरल अछि। मिथिलाक विशेषताक प्रसंग कवीश्वर चन्दा झा लिखने छथि – ‘नदीमातृक क्षेत्र सुन्दर शस्यसँ सम्पन्न।’ असममे एहि सभ विशेषताक अतिरिक्त गिरि-बन सम्पदा सेहो छैक। मिथिलाक चैहद्दीमे अछि जे ‘गंगा बहथि जनिक दक्षिण दिस’। एकर पूबमे कोशी आ उत्तरमे हिमालय छथि। मुदा आब ओ मिथिला नहि अछि, आब खण्डित मिथिला अछि।
क्षेत्रक रूपमे ‘असम’ नाम सेहो नवीन अछि। तथापि मिथिलासँ पुरान अछि। बिरंचि कुमार बरुआ1 कहैत छथि जे एहि प्रान्तक नाम आसाम किछुए काल पूर्व देल गेल अछि। ई नाम अहोम अथवा शान आक्रमणकारीसँ सम्बन्धित अछि जे तेरहम शताब्दीक आदिमे आबि ब्रह्मपुत्र घाटीमे प्रवेश कएलक। अहोम सब विजेता छल। घाटीक मूल निवासी विजेताक लेल अहोम शब्दक प्रयोग कएलक। ओहीसँ असम शब्द बनल। असम भेल जकर समन नहि कए जा सकए। पहिने एकर नाम ‘प्राग्ज्योतिषपुर’ छलैक। महाभारतक भीमक महाबलवान आ पराक्रमी पुत्र घटोत्कच आ पौत्र बर्बरीक एही प्राग्ज्योतिषपुरक छलाह। ‘प्राग्ज्येातिषपुर’क बाद एकर नाम ‘कामरूप’ भेल। महान मैथिल कवि कालिदास कामरूप लिखने छथि। समुद्रगुप्तक प्रयाग शिलालेखमे कामरूपक उल्लेख अछि। ‘कालिकापुराण’ आ ‘योगिनीतन्त्र’मे कामरूप अछि। ‘योगिनीतन्त्र’मे कामरूपक चैहद्दी देल छैक –
‘दक्षिणे ब्रह्मपुत्रास्य लक्षावह संगमावधिः
काम इति ख्याताः सर्वशास्त्रोषु निश्चिताः।’
कनक लाल बरुआक अनुसार कामरूपमे वर्तमान असमक सब जिलाक अतिरिक्त कूचबिहार, रंगपुर, जलपाइगुरी तथा दिनाजपुर सहित उत्तर बंगाल समाहित छल। कूचबिहार तँ एक समयमे शासन-सत्ता आ संस्कृतिक केन्द्रे छलैक।
मिथिला आ कामरूपक सम्बन्ध: ऐतिहासिक परिप्रेक्षमे:
मिथिलाक पुबरिया सीमा कोशीकेँ मानल गेल अछि आ एक समयमे कामरूपक पश्चिमी सीमा कोशी छलैक।2 अर्थात् मिथिला आ कामरूप एकअरिआ भेल। एकअरियामे एहि खेतक पानि बहि ओहि खेतमे जाइते छैक। से मिथिला आ कामरूपमे सेहो होइत रहल अछि। कनक लाल बरुआक3 मन्तव्यसँ सेहो स्पष्ट होइत अछि। ओ जिखने छथि जे आधुनिक असमक अधिकांश लोक प्रवासी छथि। ओसभ भारतक विभिन्न भागसँ विशेषतः विदेह आ मगधसँ अएलाह। आइओ मिसर, सुकुल, तेवारी, तिरोतया अर्थात तिरहुतक लोक असमिया ब्राह्मणमे छथि। ओ ईहो लिखने छथि जे आर्यन वेभ कामरूपमे विदेह आ मगधसँ सोझे आएल अछि। से ओहि समय जखन लोअर बंगाल रहबा योग्य अथवा आर्यजनक लेल रहबाक योग्य नहि भेल छल।4 प्राचीन कामरूपमे आर्य संस्कृति एवं सभ्यताक प्रचार-प्रसारक प्रसंग डा.महेश्वर नियोग ( Studies in the Early History of Assam);क मत सेहो एही प्रकारक अछि।
मिथिला आ कामरूपमे भौगोलिक-प्रशासकीय दृष्टिसँ कतेको साम्य अछि। जेना मिथिलाकेँ ‘विद्यागार’ कहल गेल अछि तँ कामरूपकेँ ‘सर्वशास्त्रेाषु निश्चिताः। मिथिलाक दक्षिणमे गंगा छथि तँ ‘योगिनीतन्त्र’क अनुसार असम/कामरूपक दक्षिणमे ब्रह्मपुत्र। मिथिला दू देश – भारत आ नेपालमे बंटि गेल तँ कामरूप वर्तमान बांग्लादेश आ पश्चिम बंगालमे खण्डित भए गेल। भारतक विभाजन आ शरणार्थीक बाढ़िक जतेक प्रभाव असमक भाषा आ संस्कृति पर पड़ल ततेक मिथिलाक भाषा-संस्कृतिपर नहि। मुदा, मिथिलाक समाज एवं भाषा-संस्कृति देशक बंटबारासँ पहिनेसँ अक्रान्त होअए लागल छल। विद्यापति लिखिये गेल छथि – ‘छोटओ तुरुका भभकी मार’। ओहि प्रभावमे मिथिलाक संस्कृति आ भाषा अपन सहोदरा सबसँ कटि गेल।
असमक लोक अपन भाषा-संस्कृतिक संरक्षणक लेल निरन्तर संघर्षशील रहलाह अछि। औखन संघर्षरत छथि। असमियाक पहिल व्याकरण मिशनरी नाथ ब्राउन 1848 मे लिखि प्रकाशित कएलनि। पछाति असमिया भाषापर हुनक विस्तृत पोथी सेहो आएल। असममे जखन राज-काजक भाषाक रूपमे बंगला थोपल गेल तँ असमिया भाषा-भाषी ओकर प्रबल विरोध कएल। ओहि समयमे मिशनरी नाथ ब्राउनक असमिया व्याकरण बहुत सहायक भेल छलैक। मैथिलीक पहिल व्याकरण ओकर कतेको वर्षक बाद जार्ज अब्राहम ग्रिअर्सन 1882 ई.मे लिखलनि। असमिया भाषा-भाषीक संघर्षशीलताक परिणाम छल जे साहित्य अकादकेमी आ संविधानक आठम अनुसूचीमे ओ आरम्भहिमे आबि गेल जाहि लेल मैथिलीकेँ बहुत प्रतीक्षा करए पड़लैक। असमक लोकक असमी-चेतना कतेक प्रबल अछि तकर उदाहरण देखल जाए। बंगलामूलक साहित्यकार एवं साहित्य अकादेमीक पूर्व अध्यक्ष वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य असमियामे साहित्य-सर्जना कए साहित्य अकादेमी पुरस्कारक बाद ज्ञानपीठ पुरस्कार सेहो लेलनि। मुदा मिथिलामे जनमि आजीवन मिथिलहिमे रहनिहार विभूतिभूषण मुखोपाध्याय मैथिलीमे एको आखर नहि लिखलनि, बंगले साहित्येकेँ भरैत रहलाह। एकटा आर टटका उदाहरण अछि। असमिया भाषा-भाषी कतेक आगू छथि तकर उदाहरण छथि डा. दीपामणि हलोइ महन्ता ओ मैथिली सीखि, मैथिली आ असमियाक क्रियापर शोध कएलनि। हुनक शोधग्रन्थ Assamese & Maithili Verb System : A Contrastive Study प्रकाशित अछि। डा.दीपामणि आश्वस्त कएलनि अछि जे एकरा मैथिलीमे करबाक प्रयास करब। मैथिलीक शोधार्थी आ हुनक शोध-निर्देशकक ध्यान चर्वित-चर्वणपर छनि।
पंचखण्डी मैथिल:
किछु वर्ष पूर्व अगरतलामे आयोजित संगोष्ठीमे प्रस्तुत अपन आलेखमे हम ‘पंचखण्डी मैथिल’क उल्लेख कएने रही। हमर सत्र समाप्त भेलापर रामेश्वर भट्टाचार्य नामक एक सम्भ्रान्त व्यक्ति अपन परिचय दैत कहलनि जे हम ‘पंचखण्डी मैथिल’ छी आ अद्यावधि वाचस्पति मिश्रक स्मृति-ग्रन्थक अनुसरण कए रहल छी। ओ विभाजनक उपरान्त सिलहटसँ त्रिपुरा आएल छलाह। पंचखण्डी मैथिल ओ भेलाह जनिका हजार-बारह सए वर्ष पहिने त्रिपुराक एक राजा यज्ञादिक हेतु आमंत्रित कएने छलथिन्ह आ अभीष्ट प्राप्तिक उपरान्त पर्याप्त धन आ भू-सम्पदा दानमे दए हुनका सभकेँ अपना ओहिठाम बसा लेलनि। प्रो. ताराकान्त झा5 ‘श्रीहट्टर इतिवृत्ति’क उल्लेख करैत लिखैत छथि जे सातम शताब्दीमे त्रिपुराक राजा मिथिलाक पाँच ब्राह्मण’केँ बसौलनि जे पछाति सिलहट चल गेलाह। प्रो.झा लिखैत छथि जे एहि घटनाक उल्लेख ‘वैदिक सम्बादिनी’मे छैक।
‘त्रिपुरापव्र्वताधीशः श्रीश्रीयुक्तादिधम्र्मपाः
समाज्ञा दत्ता पंच मैथिलेषु तपस्विषुः ।।
भट्टाचार्य महोदय सिलहटक निकट ‘पंचखण्ड’ नामक गाम होएबाक प्रसंग कहलनि। ईहो सम्भव छैक जे ओहि समयमे सिलहट त्रिपुराक अन्तर्गतहि रहल हो।
एहिठाम उपस्थित बहुतो गोटे कामाख्या पूजा-अर्चनाक लेल अवश्य गेल होएब। ओतय भुवनेश्वरीक मन्दिर छनि। अपने लोकनिकेँ सम्भवतः ज्ञात होएत जे मिथिलाक महान तान्त्रिक मिथिलेश महाराज रमेश्वर सिंह ओतए मन्दिर बनबाय ओहिमे भगवती भुवनेश्वरीक स्थापना कएने छलाह। ई मिथिला आ कामरूपक बीच सम्बन्धक प्रगाढ़तेक द्योतक थिक।
मिथिला आ कामरूपक सम्बन्ध अद्यावधि कतेक प्रगाढ़ अछि तथा कामरूपक लोकमे मैथिलक प्रति कतेक स्नेह-भाव छनि, ताहि प्रसंग करीब पैंतीस वर्ष पूर्वक एक घटना मोन पड़ैत अछि। हम अपन तीसटा सहकर्मीक संग गुआहाटी रिजर्व बैंकक नारंगी कालोनीमे टिकल रही। एक साँझ भेंट-घाँटक कार्यक्रम भेलैक। अपन-अपन परिचय दैत हमर सहयोगी लोकनि कहलथिन्ह जे हम बिहारक छी। हम कहलियैक जे हम मिथिलाक छी। मिथिला सुनितहिं आयोजकक लेल हम सामान्य नहि, विशेष अतिथि भए गेलहुँ। आ हमर रुचि जानि अनेक पुस्तक उपहृत कएलनि। ई मिथिलाक प्रभाव छल।
मिथिला भाषा-लिपि तथा असमी भाषा-लिपिः
लिपि:
तिरहुता अथवा मिथिलाक्षरक विकास ब्राह्मी लिपिसँ भेल अछि। केओ गुप्तलिपि सेहो कहैत छथि। गुप्त साम्राज्यक कालमे राज्यक विभाग ‘भुक्ति‘ कहबैत छल। ओहिसँ तिरभुक्ति आ’ ओहिठामक लिपि तिरहुता कहल जाए लागल। ओहिना मध्यकालीन असमी लिपिकेँ कामरूपी लिपि सेहो कहल जाइत अछि। तिरहुताक प्राचीनतम रूप सातम शताब्दीक आदित्य सेनक भागलपुर जिलाक मन्दारमे प्राप्त शिलालेखमे अछि। गयामे भेटल एगारहम शताब्दीक कतेको शीलालेखमे तिरहुता लिपिक प्रयोग अछि। म.म. राहुल सांकृत्यायनकेँ तिरहुतामे लिखल सिद्धलोकनिक रचना तिब्बतमे भेटल छलनि, तकर उल्लेख ओ कएने छथि। तिरहुता लिपिक दूर-दूर धरिक प्रयोगक साक्ष्य धर्मस्वामीक कृतिसँ सेहो होइत अछि। एहि तथ्यक उल्लेख करैत प्रो.राधाकृष्ण चैधरी लिखल अछि जे धर्मस्वामीक आगमनक समय अर्थात् कर्णाटवंशीय राजा रामसिंहदेवक शासन-काल (1234 -1236 ई.) सँ पहिनेसँ जे केओ यात्राी तिब्बत वा चीनसँ बिहार वा उत्तर भारत अबैत छलाह, तिरहुतामे निपुणता प्राप्त कए लेब आवश्यक होइत छलनि। एहिसँ स्पष्ट अछि जे तिरहुता लिपिक प्रयोग दूर-दूर धरि होइत छल। ई मिथिला भाषाक प्राचीनताक संग व्याप्तिक परिचायक सेहो थिक।
म. म. हरप्रसाद शास्त्रीकेँ नेवारी लिपिमे लिखित ‘दोहाकोष आ’ ‘चर्यापद’ नेपालमे भेटल छलनि, ओकर भाषाकेँ ओ बंगला मानि लेलनि। ओहि समयक तिरहुता, बंगला आ असमिया लिपिमे सादृश्यकेँ देखैत भेद लक्षित करब असम्भव अवश्य छलैक। नेपालमे मल्ल राजवंशक शासन काल धरि मैथिलीक लेल नेवारी लिपिक प्रयोग सेहो होइत छल। मुदा पृथ्वीनारायण शाह मल्लराजा लोकनिकेँ जेना समाप्त कए देलनि ओहिना मैथिली आ मिथिलाक्षरकेँ सेहो समाप्त कए देल। ज्ञातव्य जे नेपालमे राजकाजक भाषा मैथिली छल। से ओकर प्रयोगोपर, प्रतिबन्ध लागि गेल। ई बन्हेज करीब 1950 ई धरि छल।
ओहिना जखन देवनागरी लिपिमे छापाक सुविधा भेलैक, आ पश्चिमी शिक्षा-प्रणाली लागू भेल तँ मिथिलाक्षरक प्रयोग क्रमशः कमैत गेल। सामाजिक जीवनमे सेहो मिथिलाक्षरक प्रयोग लुप्त होइत गेल। विगत किछु वर्षमे मिथिलाक्षर सीखबाक प्रति मैथिलमे चेतना आएल अछि, ई शुभ लक्षण थिक। किछु लोकक चिन्ता एहि बातपर छनि जे सम्प्रति सिखाओल जाइत मिथिलाक्षरक ज्ञाता प्राचीन पाण्डुलिपि पढ़ि सकताह, ताहिमे सन्देह।
असमिया लिपिक विकास ब्राह्मीलिपिसँ भेल अछि। एकर विकासक तीन चरण मानल गेल छैक – प्राचीन असमिया अथवा कामरूपी लिपि, मध्यकालीन असमिया लिपि आ आधुनिक असमिया लिपि। प्राचीन लिपिक काल पाँचमसँ तेरहम शताब्दी, मध्यकालीन लिपिक तेरहमसँ उनैसम शताब्दी तथा आधुनिक लिपिक उनैसम शताब्दीसँ आइ धरि। मध्यकालीन असमिया लिपिक नमूना कनाइ बोरोशिबोवाक शिलालेख, आमबाड़ी आ गोचटालमे भेटैत अछि। एकर अतिरिक्तो अनेक शिलालेख, ताम्रपत्र आदि भेटल छैक। आधुनिक असमिया लिपिक आरम्भ ब्रिटिश शासन कालमे ओहि समय भेल जखन ईसाई मिशिनरी असमियाक काँटा बनबौलनि आ धर्मप्रचारक निमित्त ओही काँटामे पुस्तकक प्रकाशन दिस अग्रसर भेल।
तिरहुताक प्रचार-प्रसारक लेल 1928 ई मे बनल कमिटीक अनुशंसापर कलकत्तामे तिरहुताक काँटा बनाओल गेल। पुस्तक भंडार द्वारा ओहि काँटासँ दू टा पोथीओ छपल। मुदा मिथिलाक्षरक ज्ञाता लोकनि ओहि काँटाकेँ बंगला कहि, अस्वीकार कए देलनि। एमहर भारत सरकारक ध्यान सेहो मिथिलाक्षरक संरक्षण आ प्रचार-प्रसार दिस गेल आ मिथिलाक्षरक संरक्षणक उपायक लेल विशेषज्ञक एक उपसमिति गठित कएल। ओहि उपसमितिक किछु अनुशंसाकेँ स्वीकार कए दरभंगामे अवस्थित कोनहु विश्वविद्यालयमे केन्द्र स्थापित करबाक आदेश निर्गत भेल अछि। चेतना समिति भारत सरकार तथा दरभंगाक दूनू विश्वविद्यालयकेँ सरकारक सम्बद्ध आदेशक सन्दर्भमे अनुस्मारक देने अछि। मुदा अद्यावधि किछु नहि भेल छैक। संयोग एहन जे ओहि उपसमितिक एक सदस्य प्रो.रत्नेश्वर मिश्र जी सम्प्रति हमरा लोकनिक बीच छथि।
भाषाः
जार्ज अब्राहम ग्रिअर्सन मानैत छथि जे मैथिली, असमिया आ बंगला भारोपीय आर्यकुलक भाषा थिक तथा मागधी अपभ्रंससँ विकसित अछि। डा.सुनीति कुमार चटर्जी मानैत छथि जे पूर्वीय मागधीसँ असमी, बंगला आ उड़िया विकसित भेल तथा केन्द्रीय मागधीसँ मैथिली आ मगही। असमक भाषाशास्त्री यू.न.गोस्वामी असमियाक विकास मागधी प्राकृतसँ मानैत विकासक चारि टा अवस्था कहल अछि। मैथिली भाषाशास्त्राी पं गोविन्द झा सेहो मिथिला भाषाक विकासक चारि चरण मानैत छथि। अर्थात पूर्बीय भारतक चारि टा भाषा असमिया, उड़िया, बंगला तथा मैथिली एकहि माइक कोखिसँ जनमल अछि। ई भाषा सब सहोदरा भेलीह। मुदा जेना मानबक सन्तान हो वा गेल्ह – पैघ भेलापर अपन-अपन खोंता बना लैत अछि, ओहिना ई चारू सहोदरा अलग-अलग क्षेत्रमे विकसित होइत रहल छथि। एहिमे तीन भाषाक लिपि – असमिया, बंगला आ तिरहुता अथवा मिथिलाक्षर लिपिये जकाँ एकहि माइक कोखिसँ जनमल अछि। उड़ियाक लिपिपर तेलुगु लिपिक जिलेबिया प्रभावसँ ओकर स्वरूप भिन्न भए गेल छैक, मुदा भाषा नहि। इएह कारण छैक जे सए-डेढ़ सए वर्ष पूर्वधरि तिरहुता लिपिक अभ्यासी हमरालोकनिक पुरुखा लोकनि असमिया आ बंगला बहुत सहजतासँ पढ़ैत आ बुझैत छलाह। किन्तु रोमन आ देवनागरी लिपिक प्रचार-प्रसारक बाद सहोदरा भाषा-भाषीक बीच प्रत्यक्ष रूपमे मुहा-बज्जी नहि होइत अछि।
मैथिली आ असमियाक प्राचीनताः
मिथिला भाषाक प्राचीनताक प्रसंग ज्योतषी बलदेव मिश्रक मतक समर्थन करैत आचार्य रमानाथ झा मानैत छथि जे बाल्मीकि रामायणमे सीता आ हनुमान जीक बीच प्रयुक्त मानुषी भाषा वैदेहीक नैहरक भाषा छलनि। आचार्य रमानाथ झा बुद्ध-वचन आ महावीर वचनमे सेहो मिथिला भाषाक पूर्व रूप देखैत छथि। कालिदासक ‘विक्रमोर्वशीय’क चतुर्थ अंकमे पावस वर्णनक एक दोहा, तथा ‘प्राकृत पिंगल’मे वर्णवृत्तक उदाहरणमे प्रस्तुत कवितामे मैथिलीक प्राचीन रूप भैटैत छनि।
सझिआ सम्पत्ति:
बिरंचि कुमार बरुआ मानैत छथि जे असमिया भाषाक प्राचीनता सातम शताब्दी धरि पाओल जाइत अछि। कामरूपक राजा भास्कर वर्मनक आमंत्रणपर आएल चीनी यात्री ह्नेनसांग अपन यात्रा-वर्णनमे एहिठामक भाषाकेँ मध्य भारतक भाषासँ किंचित भिन्न कहने छथि। एहिसँ प्रतीत होइछ जे ताधरि असमिया भाषा अपन स्वतन्त्र रूप ग्रहण कए रहल छल। बरुआ जी असमियाक निर्माण कालक अन्य नमूना आठमसँ बारहम शताब्दीक मध्य रचित आ उपलब्ध बौद्धसिद्ध लोकनिक गीतकेँ मानैत छथि। ओ रचना सब चर्या आ दोहाक नामसँ प्रसिद्ध अछि।
बौद्धसिद्ध लोकनिक चर्या आ दोहाकेँ सर्वप्रथम हरप्रसाद शास्त्री उपरौलनि। नेवारी लिपिमे लिखित ओहि रचनाकेँ म.म.हरप्रसाद शास्त्राी बंगला मानि ‘हजार बछरेर पुरानो बांग्ला भाषाय बौद्धगान ओ दोहा आ दोहाकोश’ नामसँ प्रकाशित कएल। अधिकांश बंगाली विद्वान ढ़ोल पीटय लगलाह जे ई बंगला भाषा थिक। किन्तु वास्तविकता से नहि छलैक। ओहि समयमे बंगला भाषा सेहो निर्माणक अवस्थामे छल। प्रो.नीलरत्न सेन पुरान नेवारीमे लिखित मूल पाण्डुलिपि नेपालक राष्ट्रीय अभिलेखागारमे कार्यरत नेवारी ज्ञाता पुरान पंडित लोकनिक सहयोगसँ पढ़ाय आ पढ़ि 1977 मे प्रकाशित कएल। ओ बंगाली विद्वान द्वारा सभ किछुकेँ अपन कहबाक प्रवृत्तिक आलोचना करैत कहल अछि जे गीतक भाषा मैथिली थिक।6 एहिसँ पहिने प्रो.सेन7 कहने रहथि जे एकर भाषापर बंगला, ओड़िया, असमी आ मैथिलीक दावाकेँ खारिज नहि कएल जा सकैछ। जी.सी गोस्वामी आ ज्योति प्रकाश तमुली8 स्पष्टतः लिखने छथि जे असमिया भाषा आ असमिया साहित्यक सबसँ पुरान नमूना चर्यापदमे भेटैत अछि। ई पूर्व भारतक विभिन्न क्षेत्रक बैद्ध सिद्धाचार्य द्वारा लिखित अछि।
अपने लोकनिकेँ जानि प्रसन्नता होएत जे ठीक दू वर्ष पहिने दिसपुर कालेज गुआहाटीमे International Conference-cum-Workshop on Caryapada, Language, Literature & Culture पर अन्तर राष्ट्रीय सेमिनार भेल छल। एहिमे भारत, बंगलादेश आ नेपालक विद्वान आमंत्रित छलाह। नेपालसँ मैथिलीक प्रतिनिधि डा. रामावतार यादव9 ओहिमे अपन सुचिन्तित विचार व्यक्त कएने छथि जे भारत, नेपाल आ बंगलादेशक विद्वान एकठाम बैसि मागधी प्राकृतसँ विकसित मैथिली, बंगला, असमिया आ उड़ियाक एहि सझिया सांस्कृतिक आ साहित्यिक धरोहरिक अध्ययन आ विश्लेषण करथि। वस्तुतः चर्यापद एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सझिआ सम्पत्ति थिक। एहि सझिआ सांस्कृतिक सम्पदापर मैथिलीमे महत्वपूर्ण काज डा.जयधारी सिंहक ‘बौद्धगानमे तान्त्रिक सिद्धान्त’ पुस्तक अछि।
प्रो.नीलरत्न सेन ‘चर्यापद आ दोहाकोश’गीतकेँ अकारण मैथिली नहि कहने छल होएताह। ‘वर्णरत्नाकर’मे ज्योतिरीश्वर चैरासी सिद्धक उल्लेख कएने छथि। ओहिमे के मिथिला जनपदक छलाह आ’ के नहि, तकर उल्लेख नहि अछि। किएक तँ ओहि सम्प्रदायमे अबितहिँ ओसभ नबका नामसँ ख्यात भए जाइत छलाह; मुदा, भाषा आ’ संस्कृतिक प्रभाव पछोड़ नहि छोड़ैत छलनि। एहि हेतु, किछु सिद्धक रचना एहन अवश्य अछि जे हुनका मिथिला जनपदक प्रमाणित करैत अछि तथा मिथिला भाषा हुनक मातृभाषा छल, से सिद्ध करैत अछि। एकर अतिरिक्त, हुनकालोकनिक कार्यक्षेत्र विक्रमशीला छलनि, जतएसँ सातम शताब्दीक शिलालेख मिथिलाक्षरमे भेटल छैक। उपर्युक्त विवेचनक क्रममे रमानाथ झा (प्रबन्ध संग्रह) सरहपादक एक गीतक उल्लेख एहि निष्कर्षक संग कएने छथि जे हुनक गीतक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि निश्चित रूपसँ मिथिलाक थिक। ओहि गीतक पंक्ति अछि-
‘सिद्धिरत्थु मइ पढ़मे पढ़िअउ। मण्ड पिबन्ते ँविसरअ एमइउ।।’
मिथिलामे औखन अक्षरारम्भ एहि चारि अक्षरसँ होइत अछि, ‘सिद्धिरस्तु’। ओहिसँ पूर्व एक यन्त्र जकरा ‘आँजी’ कहल जाइछ, लिखल जाइत अछि। लोक ईहो मानैत अछि जे माँड़ पिला पर स्मरण शक्ति क्षीण होइत छैक। मिथिला आ कामरूपक सम्बन्ध कतेक सुदीर्घ कालसँ अछि तकर उदाहरण कुक्कुरीपादक गीतसँ सेहो होइत अछि।ओ लिखने छथि-
‘दिवसइ बहुड़ी कागडरेँ भाअ। राति भइले कामरु जाअ।।’
मिथिलामे एकटा कहबी प्रसिद्ध छैक – ‘दिनकेँ धनी कागेँ डेराथि, राति भेलेँ धनी कामरु जाथि’। एहि कहबीक आधारपर रमानाथ झा कहल अछि जे कुक्कुरीपाद मिथिलाक विचार-सरणि एवं वाग्धारासँ परिचित छलाह। ओना, ओ निर्णीत रूपसँ ई कहबाक स्थितिमे नहि छथि जे सभ सिद्धलोकनिक भाषा, मिथिला भाषा छल। तथापि ऐतिहासिक दृष्टिसँ विचार कए किछु सिद्धक भाषाकेँ ओ मिथिला जनपदक भाषा अवश्य मानल अछि। आ’ जाहि सिद्धक कृति न्यूनाधिक्य रूपेँ मिथिला जनपदक भाषामे नहि अछि, से एकर सदृश भाषामे अछि। निश्चित रूपसँ ओ सदृश भाषा असमी, बंगला आ उड़िया थिक।
मिथिलाक संस्कृति कामरूपक संस्कृतिसँ कतेक प्रभावित अछि तकर एक पुरान उदाहरण कुक्कुरीपादक रचनामे देखल। एक दोसर उदाहरण बीसम शताब्दीक देखल जाए। मिथिलाक किछु क्षेत्रमे विवाहक उपरान्त एक विधि होइत अछि। ओ विधि वरक भोजनक काल होइत अछि। ओहि अवसरपर महिलालोकनि एक विशेष प्रकारक गीत गबैत छथि। ओहि गीतक नाम थिक ‘योग’। ओहि योगक पंक्ति देखल जाय-
‘सुनिय सुमुख! हम योगिनि रे करु कामरु बास।
तिहुँ तल छन मँह मोहिन रे कय योग-विकास।
सुपुरुष बशमे आनब रे, दुलहिनि नब-नेह।
प्रीति सुदृढ़ गुन-बान्हब रे, दामिनि दुति देह।
हेमपति भगति सरोवर रे, पुनि-पुनि अबगाह।
श्यामानन्द कवीश्वर रे,नहि पाबिय थाह।
ई सभ भेल उत्पति, विकास आ सांस्कृतिक दृष्टिसँ सम्बन्धक किछु उदाहरण। आब व्याकरणक दृष्टिसँ मैथिली आ असमियामे कतेक साम्य अछि तकर एक दू उदाहरण देखल जाए। डा. दीपामणि हलोइ महन्त असमिया आ मैथिलीक क्रिया-प्रकरणपर महत्त्वपूर्ण काज कए प्रकाशित कएने छथि। पोथी थिक Assamese & Maithili Verb System : A Contrastive Study
मैथिली आ असमियामे सादृश्यक उदाहरणक प्रसंग डा. दीपामणि लिखैत छथि जे दूनू भाषामे दू प्रकारक धातु पाओल जाइत अछि -मुख्य धातु (primary verb roots) एवं गौण धातु (secodary verb roots), दूनू भाषामे सरल धातु दू प्रकारक देखल जाइत अछि- स्वरान्त (vowel ending verb roots) आ व्यंजनान्त(consonant ending verb roots) दूनू भाषाक धातुसभक स्वनिम संरचना (phonemic composition of verb roots) एकसमान नहि अछि। परंच दूनू भाषाक मूल आ गौण धातुक विश्लेषणसँ स्पष्ट हेाइछ जे दूनू भाषामे संरचनाक सामान्य रूप – व्यंजन-स्वर-व्यंजन पैटर्न अछि। दूनू भाषामे चारि प्रकारक व्युत्पादित धातु (derived verb roots)अछि।
वैसादृश्यः पद्ध मैथिली भाषाक अभिधान/शब्दकोशमे धातु नहि पाओल जाइत अछि। परंच असमिया भाषाक अभिधानमे धातु पाओल जाइत अछि। असमिया भाषामे चारि विन्यासक स्वरान्त धातु अछि। मैथिलीमे दुइ विन्यासक स्वरान्त धातु अछि। व्यंजनान्त धातु असमियामे छओ प्रकारक अछि आ मैथिलीमे चारि प्रकारक अछि। एहि प्रकारसँ देखैत छी जे व्याकरणिक दृष्टसँ सेहो मैथिली आ असमियामे प्रगाढ़ सम्बन्ध छैक, आदि आदि।
मैथिली आ असमिया साहित्यः
हमर विषयक अन्तिम बिन्दु अछि मैथिली आ असमिया साहित्यमे सम्बन्ध। लिपिमे समानता छैक, प्राकृतिक परिवेशमे समानता छैक, भाषामे समानताक पर्याप्त तत्त्व छैक, संस्कृतिक तत्त्वक सामान्यतः समानता छैक, धार्मिक आराधना पद्धतिमे समानता छैक, तखन एहि तत्त्व सबहक अभिव्यक्ति, साहित्यमे समानता नहि रहबे विस्मयकारी होइत।
मध्यकालमे मैथिली आ असमियाक सम्बन्ध कतेक प्रगाढ़ छल तकर उदाहरण इएह थिक जे नाटकक विकासक तीनटा केन्द्र मिथिला, नेपाल आ असम – डा.जयकान्त मिश्र10 कहैत छथि। मिथिला आ नेपालमे मैथिलीक नाटकक विकास भेलैक से तँ लोककेँ अरघैत छैक, मुदा मैथिली नाटकक विकास असममे भेल से आबक लोककेँ किन्नहु नहि पचतैक। मुदा ई वास्तविकता थिकैक। असमिया साहित्यक विख्यात इतिहासकार डा. बिरंचि कुमार बरुआक लेल सेहो ई रहस्य रहल जे श्रीमन्त शंकरदेव (1449-1558) अपन नाटकक लेल मिथिला भाषाक प्रयोग किएक कएलनि? जखन कि शुद्ध असमियामे अनेक पोथी लिखने छलाह।11 एकर कारण ओ विद्यापतिक गीतक प्रभाव मानैत छथि। मुदा विद्यापतिक गीतमे एहन कोन आकर्षण छलनि? तकर अनुसन्धान ओहिकालक सामाजिक-धार्मिक स्थितिमे करए पड़त। एहि प्रसंग डा. नवीनचन्द्र मिश्र ‘अंकिया नाट विवेचन’12 मे लिखैत छथि जे शंकरदेवक पूर्वज शाक्त छलाह। हुनका समयमे सम्पूर्ण शाक्त आ तान्त्रिक उपासना पद्धति जोर पकड़ने छल। शाक्तमे तन्त्रक प्राधान्य भेल तँ नरबलि पर्यन्त मान्य भेलैक। पश्चात समाजमे अव्यवस्था, अस्त-व्यस्तता आ नैतिक पतन भेल। बौद्ध ओ शाक्त तन्त्रक दिशिसँ जन सामान्यक आकर्षण हटैत गेल। वैष्णव धर्मक प्रति आकर्षण बढ़लैक। शंकर देव मिथिलामे साम्प्रदायिक समन्वय आ सद्भावना देखि आएल छलाह जे एक मैथिल शाक्त, शैव आ वैष्णव एकहि संग छथि। ओही क्रममे ओ शास्त्र-पुराणक अध्ययन-अध्यापन आ चर्चाक लेल ‘चैपाड़ि’ देखलनि। गाम-गाममे ‘थान’ देखलनि जतय गामक लोक पूजा-अराधना करैत छल जे सामान्यतः लोकदेवता रहैत छलाह। एकर अतिरिक्त ओ कीर्तनिञा नाटक देखलनि। जकर विषय-वस्तु सामान्यतः पौराणिक कथा रहैत छल। देश-भ्रमणक क्रममे राधा-कृष्ण विषयक विद्यापतिक गीतपर ओ सामान्य लोककेँ झुमैत देखने छलाह। श्रीमन्त शंकरदेव केवल साहित्यकारे नहि छलाह, ओ एक समाज सुधाराको छलाह। हुनक ध्यान सामाजिक सुधारपर छलनि।। देश अएलापर ओ ‘सत्र’क स्थापना कएल। जे काज मिथिलामे तीन ठाम होइत छल, तकरा सत्रक तत्त्वावधानमे एकहिठाम करए लगलाह। ओ अनुभव कएलनि जे वैष्णव धर्मक प्रचारक सबसँ नीक माध्यम नाटक थिक। एहि लेल ओ अपन नाटकक विषय, तदनुकूल राखल। हिनक नाटकमे मिथिलाक कीर्तनिञा नाटकहि जकाँ गीत अछि। डा. जयकान्त मिश्र श्रीमन्त शंकरदेवक छओ टा मैथिली नाटकक उल्लेख कएने छथि। ओ थिक ‘कालीय दमन, ‘राम विजय’(सीता-स्वयंवर),‘रुकमिनी हरण’, ‘केलि-गोपाल’, ‘पत्नी-प्रसाद’ आ ’पारिजात हरण’। उमापति सेहो ‘पारिजात हरण’ लिखने छथि। मुदा श्रीमंतशंकर देवक ‘पारिजात-हरण’ओहिसँ भिन्न अछि। हिनक शिष्य माधव देव अपन गुरुक अनुसरण कएलनि। पछाति श्रीमन्त शंकर देव आ हुनक परम्पराक नाटककेँ ‘अंकिया नाट’ कहि संकलित कएल गेल।
बंगाल आ उड़ीसामे विद्यापतिक प्रभावसँ लिखित गीतकेँ ब्रजबुलि कहल गेल। रवीन्द्रनाथ ठाकुर विद्यापतिक प्रभावसँ विद्यापतिक भाषामे अपन पहिल संग्रह लिखलनि। मुदा जखन उपनिवेश कालमे क्षेत्र आ विभिन्न भाषा-भाषीक बीच विभेद उत्पन्न कएल गेल तँ सहोदरा सभमे सेओ अपनाकेँ पैघ देखेबाक प्रवृत्ति बढ़ल। उपनिवेशी शासन-सत्ताक केन्द्र बंगला भाष-भाषी क्षेत्र कोलकाता छल। आइ-काल्हि जेना मंत्राी अथवा नेताक सामीप्यक लोक अपनाकेँ विशेष दर्जाक मानय लगैत अछि, ओहिना बंगला भाषा-भाषीक लेल उड़िया, असमिया आ मैथिली भए गेलनि। एहिमे सबसँ पहिने चेतलनि असमिया भाषा-भाषी, तकर बाद उड़िया भाषा-भाषी आ मैथिली भाषा-भाषी एकक पैर तरसँ हटलाह तँ दोसर पैरक तर किकिया रहल छथि।
समय आबि गेल अछि जे चारू सहोदरा एकमंचपर आबि छिन्न भेल अपन पुरान सम्बन्ध-सूत्रकेँ देशक भावात्मक एकताक हेतु सुदृढ़ करबा मे लागि जाथि।
Footnotes :
1. Biranchi Kumr Barua, History of Assamese Literature(Maithili), Sahitya Akademi
2- Rai K.L.Barua,Early History of Kamarupa,1933,Shillong,P.N.3-‘ It is found from epigraphic evidence that, about beginning of the sixth century A.D. the western boundary of Pragjyotish was the koshi reiver. Pragjyotish therefore touched Videha (Mithila) on the west.
3. Rai K.L.Barua, Early History of Kamarupa,1933, Shillong, “The Aryans of the modern Assam vallely were all originally immigrants from other parts of India, mostly from North Bihar. Even now Missers, Sukuls, Tewaris andTirotias(belonging toTirhut) are to be found among the Assamese Brahmans.’
4. Rai K.L.Barua,Early History of Kamarupa,1933,Shillong, ‘The Aryan wave extended to Kamarupa directly from Videha and Magadh long before lower Bengal became either habitable or fit for Aryan occupation.’ – Preface) डा.
5. ताराकान्त झअसम तथा मिथिला का सांस्कृतिक समागम,पण्डित श्रीगोविन्द झा‘ अर्चा ओ चर्चा,1997,पटना
6. . Dr. Nilratan Sen.Caryagitikosh,Facsimile Edition, Simala, Indian Institute of Advanced Study,1977. -During my recent visit to the National Archives of Nepal I had an oppotunity to consult some traditional pundits working there as professional readers and scribes of old manucripts. They identified its script as Old Newari. In their opinion the language of the songs is Maithili, and that of commentary is in Sanskrit.
7. Dr. Nilratan Sen, Caryagitikos is the earliest manuscript in all the NIA languages.Naturally with Bengali, the major sister languages like Oriya,Assamese and Maithili have also put their claim on this rare book…..in that respect cannot be rejected outright.
8. G.C.Goswami & Jyotiprakash Tamuli,2023, ‘Asamiya” In Cardona George & Dhanesh Jain(eds2003) pp.391-443. ‘The earliest specimens of Asamiya language and literature available in the dohas known as Caryas, written by the Buddhist Siddhacharyas hailing from different parts of eastern India.’
9. Dr. Ramawatar Yadav, International Conference-cum-Workshop on Caryapada, Language, Literature & Culture, Guwahati,2022.- ‘It is only appropriate for the scholars of India, Bangla Desh and Nepal to converge, devote their synergy together as well as share their insights and perspectives on the mystical songs belonging to the common cultural and literary heritage of such cognate language as Maithili, Bangla, Assamese and Oriya – all deriving from Magadhi Prakrit.
10. Dr. Jayakant Mishra,History of Maithili Liteture,Vol.1,1949,pp.no.45
11. B.K.Barua, Assamese Literature, 1941, Indian Center of P.E.N. Bombay,p.16- ‘It is difficult to guess why Shankardeva should have chosen this language as a medium of dramatic expression. He had written many books in pure Assamese verse. His sudden departure into this language seems to be an enigma.Quated by Dr.J.K.Mishra,History of Maithili Literature,Vol.1.page 361.
12. डा. नवीनचन्द्र मिश्र,अंकिया नाट विवेचन,1984, मिथिला दर्शन प्रा.लि.कलकत्ता, पृ.सं.17